उत्तरकाशी की सिलक्यारा सुरंग में फंसे 41 मज़दूरों को मंगलवार देर शाम सुरक्षित निकाल लिए जाने के बाद अब यह सवाल अहम है कि इस दुर्घटना के कारणों की जांच कितनी गंभीरता से होगी. मीडिया में राहत अभियान की कामयाबी की लगातार चल रही तस्वीरों ने सरकार, कंपनियों और ठेकेदारों की मिलीभगत को ढक दिया गया है जिस कारण पिछले एक दशक में हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं का सिलसिला लगातार बढ़ा है. इन सभी आपदाओं का रिश्ता किसी न किसी रूप में विकास परियोजनाओं से जुड़ा है लेकिन किसी मामले में न तो कोई प्रभावी जांच हुई और न किसी की जवाबदेही तय हुई.
इस साल ही कम से कम तीन बड़ी आपदायें हिमालयी क्षेत्र के तीन अलग-अलग राज्यों में हुईं जिनमें साल की शुरुआत में उत्तराखंड के जोशीमठ में भू-धंसाव, फिर हिमाचल में बाढ़ से भारी तबाही और उसके बाद सिक्किम में बाढ़ से क्षति शामिल है. चौथी और ताज़ा घटना इस सुरंग के धंसने के रूप में है और इसमें भी पर्यावरण मानकों और स्टैंडर्ड कार्यपद्धति के उल्लंघन को लेकर कई सवाल हैं.
जोशीमठ आपदा से शुरू हुआ साल
साल की शुरुआत चमोली ज़िले के जोशीमठ में भूधंसाव के साथ हुई जिस कारण वहां घरों में दरारें आईं. कुछ भवनों को गिराना पड़ा और लोगों को विस्थापित किया गया. जोशीमठ करीब 6000 फीट की ऊंचाई पर बसा एक पहाड़ी कस्बा है. विशेषज्ञों ने 70 के दशक में ही इस क्षेत्र में किसी तरह का भारी निर्माण कार्य न करने की चेतावनी दी थी. भूवैज्ञानिकों के मुताबिक यह एक पैराग्लेशियल ज़ोन (ग्लेशियर द्वारा छोड़े गए मलबे पर टिकी जगह) है. इस कारण यहां भारी निर्माण नहीं होना चाहिए. लेकिन जनवरी में न्यूज़लॉन्ड्री ने इस क्षेत्र से रिपोर्टिंग करते हुए बताया कि करीब 12000 करोड़ की विकास परियोजनायें यहां चल रही हैं जिनके लिए भारी मशीनरी का प्रयोग और ब्लास्टिंग हो रही है.
स्थानीय लोगों ने सरकारी कंपनी एनटीपीसी के निर्माणाधीन जलविद्युत प्रोजेक्ट को यहां हो रही क्षति के लिए ज़िम्मेदार ठहराया और एनटीपीसी गो बैक के पोस्टर पूरे शहर में चिपकाए.
हालांकि बाद में सरकार ने आठ एजेंसियों से इस घटना की जांच कराई. आपदा प्रबंधन विभाग की रिपोर्ट में एनटीपीसी के हाइड्रो प्रोजेक्ट का ज़िक्र नहीं किया और प्रशासन द्वारा भूधंसाव की घटना के बाद रोके गए हेलंग-मारवाड़ी बाइपास का काम फिर से शुरू करने की सिफारिश की. जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में इस प्रोजेक्ट को क्लीन चिट दी गई. भूविज्ञानी मानते हैं जोशीमठ को बचाने का एकमात्र तरीका वहां से बसावट को हटाना है लेकिन इस रिपोर्टर ने इस साल जून में पाया कि कुछ ही किलोमीटर दूर बद्रीनाथ में नए मास्टर प्लान को लागू करने का काम ज़ोरशोर से चल रहा है जबकि 50 साल पहले ऐसे पुनर्निर्माण के खिलाफ चेतावनी दी गई थी.
हिमाचल और सिक्किम में आपदा
जहां इस साल जुलाई-अगस्त में भारी बारिश के कारण पूरे हिमाचल में 250 से अधिक लोगों की जान गई वहीं सिक्किम में एक झील के फटने से कम से कम 70 लोग मरे और कई लापता हुए. हिमाचल में आर्थिक नुकसान का अंदाज़ा करीब 7000 करोड़ का लगाया गया है. दूसरी और सिक्किम की आपदा एक हिमनद झील के टूटने से तीस्ता बांध की बर्बादी के कारण हुई. इसमें आर्थिक क्षति का शुरुआती अनुमान करीब 250 करोड़ का लगाया गया था. इन तीनों ही राज्यों में हाईवे और हाइड्रो पावर योजनाओं में नियमों की अनदेखी के साथ अर्ली वॉर्निंग सिस्टम के अभाव के सवाल उठे.
उत्तराखंड में चार धाम यात्रा मार्ग (सिलक्यारा सुरंग इस यात्रा मार्ग का हिस्सा है) की चौड़ाई को लेकर पहले ही सवाल उठते रहे हैं और अभी पाया गया है कि इस सुरंग को बनाने वाली कंपनी नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड का रिकॉर्ड पहले ही ख़राब रहा है. महत्वपूर्ण है कि इसी कंपनी को उत्तराखंड में बहु प्रचारित कर्णप्रयाग-ऋषिकेश रेल लाइन का भी ठेका दिया गया है.
मानकों की अनदेखी और जवाबदेही तय नहीं
हिमालयी क्षेत्र में आपदायें पिछले एक दशक में तेज़ी से बढ़ी हैं. ग्लोबल वॉर्मिंग और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों ने हिमालय पर संकट को लगातार बढ़ाया है. लेकिन सभी हिमालयी राज्यों में विकास परियोजनाओं में मानकों का कड़ाई से पालन नहीं हो रहा. इससे पहले 2021 में ऋषिगंगा में आई अचानक बाढ़ के बाद एनटीपीसी की सुरंग में मलबा भर जाने से करीब 200 लोगों की मौत हुई थी. तब जोशीमठ के पास तपोवन में सुरंग के भीतर काम कर रहे मज़दूरों के लिए कोई पूर्व चेतावनी प्रणाली नहीं थी और उसकी जवाबदेही तय नहीं हुई. अब सिलक्यारा सुरंग में धंसाव के बाद सरकार ने देश में 29 सुरंगों का सुरक्षा ऑडिट करने की भी घोषणा की.
सिलक्यारा सुरंग को मंज़ूरी देते हुए इसमें एस्केप रूट बनाने की बात कही गई लेकिन हादसे के बाद पता चला कि ऐसा सेफ्टी वॉल्व नहीं था. वहीं दस्तावेज़ बताते हैं कि सिलक्यारा सुरंग निर्माण शुरू होने से पहले 2018 में ही इस क्षेत्र में कमज़ोर चट्टानों की चेतावनी दी गई थी. केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने भी मज़दूरों के सुरक्षित निकलने के बाद कहा, “इस घटना से हमें काफी कुछ सीखने को मिला है. हम सुरंग का सेफ्टी ऑडिट भी करने वाले हैं और टेक्नोलॉजी का कैसे बेहतर प्रयोग कर सकें ये भी कोशिश करेंगे. हिमालय काफी भंगुर है और इसीलिए स्वाभाविक रूप से यहां काम करना कठिन है और इसके लिए हमें उपाय ढूंढना होगा.”
हिमालय पर कई दशकों से काम कर रहे भूविज्ञानी नवीन जुयाल कहते हैं हाईवे के लिए सुरंग बनाना निश्चित रूप से सड़क निर्माण की तुलना में “अपेक्षाकृत सुरक्षित” तरीका हो सकता है क्योंकि सड़कों के चौड़ीकरण के कारण पहाड़ों में अस्थिरता आती है और जनहानि की आशंका रहती है. लेकिन जुयाल के मुताबिक सुरंग निर्माण से पहले उस क्षेत्र के भूविज्ञान का व्यापक अध्ययन ज़रूरी है.
उन्होंने कहा, “मुझे पूरा विश्वास है कि अगर सिलक्यारा टनल बनाने से पहले पर्याप्त अध्ययन और विशेषज्ञों से राय के बाद ज़रूरी नियमों का पालन किया होता तो यह हादसा नहीं होता.” हिमालयी मामलों पर कई दशकों से काम कर रही पर्यावरण कार्यकर्ता मान्शी आशर जो हिमधरा की सह-संस्थापक हैं, कहती हैं, “इस वर्ष तो कई आपदायें हुई ही हैं लेकिन पिछले दो दशकों में हमने देखा है कि मेगा इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे-जैसे बढ़े हैं तो साथ में आपदायें भी बढ़ी हैं. वन क़ानूनों का पालन हो या सामाजिक ज़िम्मेदारी इन सभी मुद्दों से जुड़े रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क कमज़ोर हुए हैं और किसी की जवाबदेही नहीं रही.”
आशर कहती हैं कि जवाबदेही के लोकतांत्रिक मंच भी सिकुड़ रहे हैं तो ऐसे में पीड़ितों के लिए यह समझना मुश्किल हो रहा है कि आखिर जवाबदेही मांगी किससे जाए. आशर के मुताबिक, “पहाड़ी राज्यों में बड़ी जलविद्युत परियोजनायें तो पहले से ही बन रहीं थीं लेकिन केंद्र सरकार ने कानूनों में जो बदलाव किए उसके बाद यहां हाईवे और रेल के मेगा प्रोजेक्ट बनने लगे. कड़े कानूनों के अभाव में केवल इन प्रोजेक्ट्स में काम करने वाले मज़दूरों के जीवन पर संकट नहीं छाया बल्कि जनता और पारिस्थितिकी इसकी बड़ी कीमत लंबे समय तक चुकाएगी. फायदा सिर्फ कंपनियों और ठेकेदारों का है.”
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