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हृदयेश जोशी

उत्तराखंड सुरंग हादसा: हिमालय की नाजुकता और निकासी के रास्तों का ध्यान रखने की जरूरत क्यों?

उत्तरकाशी के बड़कोट-सिल्कियारा सुरंग के भीतर फंसे 41 मजदूरों को बाहर निकालने की जद्दोजहद का ये नौवां दिन है. 18 नवंबर को प्रधानमंत्री के पूर्व सलाहकार भास्कर खुल्बे के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल ने जमीनी हालात का मुआयना किया. सरकार ने पिछले हफ्ते कहा था कि सुरंग में "फंसे हुए श्रमिकों को निकालने" के लिए "सभी तरह के प्रयास" किए जा रहे हैं.

शीर्ष अधिकारियों के साथ बैठक के बाद खुल्बे ने प्रेस को बताया कि श्रमिकों को बचाने में 'पांच, छह या सात दिन भी' लग सकते हैं.

उन्होंने कहा, "हम किसी एक योजना के तहत काम करने के बजाय पांच सूत्री रणनीति पर काम कर रहे हैं. हम (पहाड़ में) लंबवत और क्षैतिज दोनों तरह से अलग-अलग जगहों पर ड्रिल करेंगे. नीदरलैंड से एक मशीन मंगाई गई है जो हमारे लिए पहाड़ी को क्षैतिज रूप से ड्रिल करने में मददगार होगी."

12 नवंबर की सुबह सुरंग के एक हिस्से के ढहते ही श्रमिकों की मुसीबत का एक लंबा सफर शुरू हो गया. सुरंग का जो हिस्सा ढह गया वह उत्तराखंड की चार धाम महामार्ग परियोजना का निर्माणाधीन हिस्सा था.

श्रमिकों को ऑक्सीजन, पानी और खाना देने के लिए पाइप लगाए गए हैं. सरकार ने उन्हें बाहर निकालने के लिए कई मशीनों का इस्तेमाल किया, जिसमें एक अमेरिकी ऑगर ड्रिल भी शामिल थी. इस मशीन के जरिए 70 मीटर चट्टान को काटा जा सकता है. लेकिन ये सारे प्रयास धरे के धरे रह गए. अमेरिकी ऑगर ड्रिल से काम नहीं बन सका और 18 नवंबर को आखिरकार ड्रिलिंग बंद कर दी गई. 

इस वजह से ही सरकार के आश्वासन के बावजूद सुरंग में फंसे मजदूरों के परिजन डरे हुए हैं. इससे कई सवाल भी खड़े हुए, जैसे फंसे हुए श्रमिकों को निकालने के लिए कोई रास्ता क्यों नहीं है? इसके निर्माण के दौरान किन सुरक्षा मानदंडों का पालन किया गया था?

विशेषज्ञों ने अब उत्तराखंड में सभी परियोजनाओं के "सुरक्षा ऑडिट" की मांग की है. इनमें नई और पहले से चल रही परियोजनाएं भी शामिल हैं. न्यूज़लॉन्ड्री ने घटनास्थल पर जाकर कुछ लोगों से बात की और हमने समझना चाहा कि कहां चूक हुई?

 कहां हैं ‘निकासी के रास्ते’?

चार धाम महामार्ग परियोजना उत्तराखंड सरकार की ड्रीम ऑल-वेदर हाईवे परियोजना है, जिसका उद्घाटन दिसंबर 2016 में 12,000 करोड़ रुपए की लागत से किया गया था. बरकोट-सिल्कियारा सुरंग परियोजना की घोषणा 2018 में की गई थी. इस परियोजना के तहत दो लेन की 4.5 किलोमीटर लंबी एक सुरंग बनाई जानी थी, जिससे गंगोत्री और यमुनोत्री के बीच की दूरी लगभग 20 किलोमीटर कम हो जाती. इसके साथ ही उम्मीद की जा रही थी कि इस सुरंग से तीर्थयात्रियों की यात्रा का समय 45 मिनट तक कम हो सकेगा. इस सुरंग की लागत 1,383 करोड़ रुपए है. 

इस परियोजना का काम नेशनल हाईवे एंड इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड (एनएचआईडीसीएल) की देखरेख में किया जा रहा था. जून 2018 में एनएचआईडीसीएल ने इंजीनियरिंग, प्रबंधन और निर्माण के लिए हैदराबाद की नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड के साथ 853.79 करोड़ रुपए के कॉन्ट्रैक्ट साइन किए थे.

महाराष्ट्र में समृद्धि एक्सप्रेस-वे के निर्माण के दौरान इसी साल अगस्त में एक क्रेन गिरने से 17 लोगों की मौत हो गई. नवयुग कंपनी एक्सप्रेस-वे का निर्माण करने वाले ठेकेदारों में से एक थी. 

मौजूदा संकट में सरकार की ओर से जारी प्रेस रिलीज में कहा गया कि 12 नवंबर को सुबह 5.30 बजे सुरंग के "ढहने" के वक्त श्रमिक "रीप्रोफाइलिंग का काम" कर रहे थे.

ये घटना कैसे घटी इसे लेकर सभी की राय बंटी हुई है.

उत्तराखंड यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टिकल्चर एंड फॉरेस्ट्री में भू-विज्ञानी और पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर एस.पी सती ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "वैसे तो कंस्ट्रक्शन कंपनियां ये कभी स्वीकार नहीं करती हैं कि वे अपने काम में विस्फोटकों का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन हमने अतीत में बार-बार इसका उल्लंघन देखा है. मेरा मानना है कि सुरंग के ढहने की सबसे बड़ी वजह एक बड़ा झटका रही होगी. इसकी जांच होनी चाहिए. भारी विस्फोटकों के इस्तेमाल से इंकार नहीं किया जा सकता है."

सुरंग में निकासी के रास्ते क्यों नहीं थे? वो भी तब जब सरकार ने फरवरी 2018 में सुरंग परियोजना को मंजूरी देते वक्त इस बात का जिक्र किया था कि सुरंग में  “निकासी के रास्ते” होंगे.

जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व निदेशक पीसी नवानी ने कहा कि निकासी के रास्तों के बिना ऐसी परियोजनाओं का प्रबंधन करना संभव ही नहीं है. 

उन्होंने कहा, "आपको न केवल जीवन बचाने और बचाव कार्य को सुविधाजनक बनाने के लिए निकासी के रास्तों की दरकार है बल्कि सुरंग में सामग्री की आपूर्ति को आसान बनाने के लिए भी इसकी जरूरत है."

हिमालय की संवेदनशीलता

यूरोप, चीन और अमेरिका सरीखे देशों में सुरंगें तेजी से सड़क, रेल और जल विद्युत परियोजनाओं का एक अनिवार्य हिस्सा बन रही हैं. भारत में भी हिमालय के इलाके में परियोजनाएं तेजी से उभर रही हैं. 16,000 करोड़ रुपए की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना में एक दर्जन से ज्यादा सुरंगें शामिल होंगी, जिनमें से देश की सबसे लंबी सुरंगों में एक होगी इसकी लंबाई 15 किलोमीटर तय की गई है.

लेकिन यह जानते हुए कि पारिस्थितिक तौर पर हिमालय एक संवेदनशील इलाका है, निर्माण कार्य में सावधानी बरतने की जरूरत है.

पीसी नवानी नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रॉक मैकेनिक्स के निदेशक भी रहे हैं. उन्होंने कहा, "यूरोप में कई बड़ी सुरंगें हैं क्योंकि उनके यहां टेक्टोनिक गतिविधि कम हैं और उनके यहां पहाड़ मज़बूत और स्थिर हैं. हमने भूटान, नेपाल, पूर्वोत्तर भारत, उत्तराखंड और पाकिस्तान सहित हिमालयी क्षेत्रों में सुरंगें बनाई हैं. हम दुनिया भर में अपनाई गई तकनीक का ही इस्तेमाल करते हैं लेकिन भारत में, विशेषज्ञों की नियुक्ति उचित तरीके से नहीं हो रही है."

"मिसाल के लिए इन परियोजनाओं में एक इंजीनियरिंग विशेषज्ञ भू-विज्ञानी से निरीक्षण कराने की जरूरत होती है. लेकिन अक्सर बगैर किसी जानकारी के कॉन्ट्रैक्टर्स इस काम को खुद कर लेते हैं."

नवानी कहते हैं, "उन्हें (कॉन्ट्रैक्टर्स) आमतौर पर केवल अपनी लागत की चिंता होती हैं और यहीं से सारी समस्या शुरू होती है."

भू-विज्ञानी नवीन जुयाल अहमदाबाद में भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला में एक वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं और चार धाम परियोजना की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त समिति के सदस्य रहे हैं. उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि सुरंग कुछ मायनों में "सड़कों की तुलना में सुरक्षित" है क्योंकि "सड़कों के चौड़ीकरण की वजह से पहाड़ों में अस्थिरता आती है और जनहानि की आशंका रहती है.

जुयाल कहते हैं, "हिमालय 'अस्थिर' है, इसलिए सुरंग बनाने से पहले चट्टान का विस्तृत अध्ययन करना चाहिए."

वह कहते हैं, "कुछ परियोजनाओं में उचित भू-वैज्ञानिक और भू-तकनीकी सर्वे की जरूरत होती है. मुझे यकीन है कि अगर जायज़ तरीके से अध्ययन किया गया होता, तो हमें इस पहाड़ में चट्टानों की कमजोरी के बारे में पता होता."

सुरंग की सुरक्षा इसके आकार पर भी निर्भर करती है. बड़कोट-सिल्कियारा सुरंग 13 मीटर चौड़ी और नौ मीटर ऊंची है.

पीसी नवानी कहते हैं, "लोग अक्सर केवल सुरंग की लंबाई के बारे में सोचते हैं और उसी की परवाह करते हैं, लेकिन आकार और व्यास को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि क्या यह एक गोलाकार सुरंग है या घोड़े की नाल के आकार की है? हमें लगातार निगरानी करनी चाहिए कि चट्टान कैसी प्रतिक्रिया देती है, चाहे वह स्थिर हो या नहीं. हमें यह देखना होगा कि सुरंग का व्यास सामान्य है या सिकुड़ रहा है, हमें यह भी देखना चाहिए कि सुरंग के भीतर इस्तेमाल किए गए उपकरण सही तरीके से काम कर रहे हैं या नहीं."

उन्होंने आगे कहा, "लेकिन ऐसी छोटी परियोजनाओं में कोई भी इन अहम बिंदुओं के बारे में परवाह नहीं करता है."

नवीन जुयाल ने बाकी सुरक्षा पहलुओं पर भी ध्यान खींचा जिनकी निगरानी की जानी चाहिए. जैसे कि क्षेत्र के जल विज्ञान का सावधानीपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिए. वे कहते हैं कि इस तरह के सर्वे के अभाव में ड्रिलिंग करते समय जल स्रोत में छेद हो सकता है जिससे आपदा का सामना करना पड़ सकता है.

वे कहते हैं, "एक बार ऐसा होने पर, न केवल सुरंग से पानी बाहर निकलना शुरू हो जाएगा और आसपास के क्षेत्रों में जल स्रोत खत्म हो जाएंगे, बल्कि इससे सुरंग की छत और किनारे की दीवारें भी ढह सकती हैं,."

ये कदम जरूरी हैं क्योंकि चट्टान की प्रकृति और उसकी ताकत हर जगह एक जैसी नहीं होती है. इसलिए ड्रिलिंग करते वक्त या चट्टानों को काटते समय अलग-अलग चरणों में बदलाव की जरूरत है. लेकिन किसी भी परियोजना को पूरा करने की होड़ में इन मानदंडों को दरकिनार किए जाने की संभावना बनी रहती है.

पीसी नवानी कहते हैं, "आप मजबूत चट्टान को ड्रिल कर रहे होते हैं फिर आप एक कमजोर चट्टान की ओर जाते हैं. अगर मुझे ड्रिलिंग करते समय एक कमजोर चट्टान मिले, तो मेरी खुदाई की योजना अलग होगी."

नवानी कहते हैं, "मैं सुरंग बनाने के लिए किसी विस्फोट का सहारा नहीं लूंगा. उस क्षेत्र में एक मीटर से ज्यादा खुदाई नहीं की जाएगी. हमें चट्टानों को तुरंत अतिरिक्त सहायता मुहैया करानी होगी. ऐसी स्थिति में कार्य की प्रगति धीमी हो जाएगी."

उन्होंने चेतावनी दी कि अगर इसे नजरअंदाज किया जाता है और परियोजना निर्धारित मानदंडों का पालन किए बिना पारंपरिक तरीके से आगे बढ़ती है तो "आज या कल, सुरंग में इस्तेमाल हुई सामग्री का भार समस्या पैदा करेगा और ऐसी घटनाएं दोबारा हो सकती हैं."

इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

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