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बसंत कुमार

देश के पावर प्लांट्स में एफजीडी यूनिट लगाने की बार-बार बढ़ाई जा रही समय सीमा

जब थर्मल पावर प्लांट (टीपीपी) बिजली बनाने के लिए कोयला जलाते हैं तो सल्फर डाइऑक्साइड (एसओ2) का उत्सर्जन होता है. 2019 में, भारत इस जहरीली गैस का सबसे बड़ा उत्सर्जक बन गया.

लेकिन देश द्वारा यह उपलब्धि हासिल करने से चार साल पहले, नरेंद्र मोदी सरकार ने पूरे भारत में सभी कोयला-संचालित संयंत्रों में फ़्लू गैस डिसल्फ़राइज़ेशन (एफजीडी) यूनिट स्थापित करने के लिए दो साल की समय सीमा तय की थी. यह समय सीमा तीन बार चूक गई है. मालूम हो कि एफजीडी, एसओ2 उत्सर्जन को कम करने के लिए इस्तेमाल होता है.

नवंबर, 2024 में केंद्रीय विद्युत मंत्रालय ने चौथी बार इसकी समय सीमा बढ़ाने की मांग की. अब तक कुल 600 में से 44 थर्मल पावर प्लांट (7 प्रतिशत) में ही एफजीडी लग पाया है.

विद्युत मंत्रालय द्वारा समय सीमा बढ़ाने के लिए लिखा गया पत्र.

एक तरफ विद्युत मंत्रालय समय सीमा बढ़ाने की मांग कर रहा है वहीं, दूसरी तरफ भारत सरकार का शीर्ष थिंक-टैंक नीति आयोग, एफजीडी के प्रभावों के संबंध में पर्यावरण मंत्रालय के साथ एकमत नहीं है. सितंबर में एक नोट में, आयोग ने वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद- राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान (सीएसआईआर-नीरी) की एक मसौदा रिपोर्ट का हवाला दिया. 

आयोग के नोट में इस रिपोर्ट के हवाले से कहा गया, "डाटा यह सुझाव नहीं देता है कि भारतीय कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से एसओ2 उत्सर्जन, परिवेशी वायु गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है." 

सीएसआईआर-नीरी की मसौदा रिपोर्ट

रिपोर्ट में सुझाव दिया गया कि पहले पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) पर नियंत्रण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. रिपोर्ट में कहा गया, "एसओ2 की बात की जाए तो पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने और मानव स्वास्थ्य की रक्षा के लिए केवल परिवेशी वायु के गुणवत्ता मानक को पूरा करने की आवश्यकता है.  इसलिए, भारतीय कोयला आधारित कम सल्फर टीपीपी में एफजीडी स्थापित करने का कोई लाभ नहीं है. इससे केवल बिजली उत्पादन की लागत बढ़ेगी". 

नीति आयोग के नोट में ये भी कहा गया कि केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अध्यक्ष ने आईआईटी-दिल्ली द्वारा किए गए एक ऐसे ही अध्ययन का हवाला दिया था, जिसमें इस तरह के दावे किए गए. 

“सीईए के अध्यक्ष ने बताया कि आईआईटी दिल्ली ने परिवेशी वायु में एसओ2 सांद्रता के व्यापक माप-आधारित सर्वेक्षण पर इसी तरह का अध्ययन किया था और सिफारिशें भी सीएसआईआर-नीरी की सिफारिशों के अनुरूप हैं.” 

हालांकि, आईआईटी दिल्ली के अध्ययन में ऐसा कोई दावा नहीं किया गया था. इस अध्ययन का शीर्षक था- ‘भारत में थर्मल पावर प्लांट्स द्वारा नए एसओ2 उत्सर्जन मानदंडों (2015) के अनुपालन का आकलन करने के लिए अध्ययन और एफजीडी कार्यान्वयन के लिए चरणबद्ध योजना तैयार करना’. 

इस अध्ययन में कहा गया, “हमने पाया कि टीपीपी में एफजीडी लगाने से एसओ2 की सांद्रता में महत्वपूर्ण रूप से 55 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है. यह कमी ज्यादातर टीपीपी के आसपास के क्षेत्रों और वहां से 60 से 80 किमी की अधिकतम दूरी तक देखने मिल सकती है. लेकिन सल्फेट (एसओ4) एरोसोल की सांद्रता में 30 प्रतिशत तक की कमी टीपीपी से 200 किमी दूर तक आ सकती है."

सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर के शोधकर्ता मनोज कुमार एन. ने कहा कि यह स्पष्ट है कि एसओ2 का वायुमंडल में मौजूद पार्टिकुलेट मैटर पर असर पड़ता है.

“एक बार जब एसओ2 वायुमंडल में पहुंचता है तो यह सैकेंडरी पार्टिकुलेट मैटर यानि पीएम में बदल जाता है. इसलिए अगर आप किसी भी तकनीक से एसओ2 को नियंत्रित करते हैं तो आप न केवल एसओ2 बल्कि पार्टिकुलेट मैटर में भी कमी देख सकते हैं. हालांकि, मॉनीटरिंग का स्थान भी बहुत महत्वपूर्ण है. कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए वह समय सीमा बढ़ा दे रहे हैं.”

पर्यावरण विशेषज्ञ सुनील दहिया ने नीति आयोग की टिप्पणियों को गलत बताया. उन्होंने कहा, “अगर सिर्फ एसओ2 की बात की जाए तो यह प्रदूषण की कोई बड़ी वजह नहीं है…लेकिन एसओ2, हवा में मौजूद दूसरे कणों के साथ प्रतिक्रिया करके पीएम 2.5 बनाता है…अगर आप वायु प्रदूषण में पावर प्लांट की भूमिका देखना चाहते हैं तो जरूरी है कि आप सिर्फ़ एसओ2 को न देखें बल्कि इससे बनने वाले पार्टिकुलेट मैटर की भूमिका पर ध्यान दें.”

दहिया के अनुसार, दिल्ली में पीएम स्तर में लगभग 15 से 20 प्रतिशत योगदान थर्मल पावर प्लांट का है. 

न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए विद्युत मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि कई बिजली संयंत्र एफजीडी लगाने से बच रहे हैं क्योंकि यह काफी महंगा है.

हालांकि, 2018 में थर्मल पावर प्लांट के लिए उत्सर्जन मानकों के लागत-लाभ विश्लेषण को देखने के लिए एक अध्ययन हुआ. थिंक-टैंक सेंटर फॉर स्टडी ऑफ साइंस, टेक्नोलॉजी एंड पॉलिसी (स्टेप) ने अपने अध्ययन में कहा कि बिजली उत्पादकों को एफजीडी यूनिट लगाने के लिए निवेश की आवश्यकता जरूर है लेकिन इसके सकारात्मक परिणाम भी हैं.

इस अध्ययन के मुताबिक, अगले 15 वर्षों में बाजार में लगभग 2,50,000 करोड़ रुपये के अवसर पैदा हो सकते हैं. सकारात्मक पक्ष यह है कि इससे 3.2 लाख असामयिक मौतों और सांस की बीमारियों के चलते करीब 5.2 करोड़ मरीजों को अस्पताल में भर्ती होने से बचाया जा सकता है. इसके अलावा 12.6 करोड़ कार्य दिवसों की हानि रोकी जा सकती है और स्वास्थ्य पर आने वाले खर्च में 9,62,222 करोड़ रुपये तक की बचत हो सकती है.

एफजीडी कार्यान्वयन का ऑडिट

20 नवंबर को ऊर्जा मंत्रालय के अवर सचिव जितेंद्र मिश्रा ने पर्यावरण सचिव लीना नंदन को पत्र लिखकर श्रेणी ए, बी और सी के लिए तीन साल (36 महीने) का विस्तार मांगा.

श्रेणी ए के संयंत्र दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों के 10 किलोमीटर के दायरे में, श्रेणी बी के संयंत्र गंभीर रूप से प्रदूषित शहरों के 10 किलोमीटर के दायरे में और शेष सभी संयंत्रों को 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों के 10 किलोमीटर के दायरे में रखा जाता है. इन तीन श्रेणियों के लिए एफजीडी यूनिट लगाने की पिछली समय सीमा क्रमशः 2022, 2023 और 2024 थी.

इन श्रेणियों को 2022 में समय सीमा का विस्तार मिला. इससे पहले बिजली मंत्रालय ने 2017 और दिसंबर 2022 में दो बार विस्तार मांगा था. लेकिन इन विस्तारों के बाद भी 556 कोयला आधारित बिजलीघरों ने अभी तक एफजीडी यूनिट नहीं लगाई. 

सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, दिल्ली के 300 किलोमीटर के दायरे में 11 कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांट हैं - दादरी टीपीपी, गुरु हरगोबिंद टीपीएस, हरदुआगंज टीपीएस, इंदिरा गांधी एसटीपीपी, महात्मा गांधी टीपीएस, पानीपत टीपीएस, राजीव गांधी टीपीएस, राजपुरा टीपीपी, रोपड़ टीपीएस, तलवंडी साबो टीपीपी और यमुना नगर टीपीएस. लेकिन इनमें से केवल दो में ही एफजीडी यूनिट है.

न्यूज़लॉन्ड्री ने इस मामले पर नीति आयोग से संपर्क किया है. यदि कोई प्रतिक्रिया आती है उसे इस रिपोर्ट में शामिल किया जाएगा.  

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