शाहदरा की एक टायर मरम्मत की दुकान जिसमें बमुश्किल ही रौशनी और हवा महसूस की जा सकती है, 13 साल के राजेश के लिए हर दिन वहां काम करना और सांस लेना चुनौती बन गया है. बावजूद इसके, उसे हर रोज इस काम पर लौट कर आना होता है ताकि परिवार में बढ़ते खर्च और अपनी टीबी की बीमारी में हर महीने खर्च होने वाले 1000 रुपए में वह अपना योगदान दे सके.
राजेश अपने परिवार का सबसे बड़ा बेटा है. मां सोनिया, तीन बच्चों का पालन-पोषण अकेले ही करती हैं. वह लोगों के घरों में खाना बना कर अपने परिवार का पेट पालती हैं. वह कहती हैं, “कई बार हमारे पास राजेश की आधी दवाइयों के लिए भी पैसे नहीं होते.”
दिल्ली का प्रदूषण भले ही अखबार के पन्नों में बड़े-बड़े अक्षरों में हर रोज छापा जाता है लेकिन वायु प्रदूषण से देश का कोई भी शहर अछूता नहीं है. पूरे भारत में वायु प्रदूषण एक "साइलेंट किलर" बन चुका है. स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक, देशभर में जहरीली हवा की वजह से हर दिन 5 साल से कम उम्र के लगभग 464 बच्चों की मौत होती है. राजधानी दिल्ली में, वायु गुणवत्ता उच्च स्तर पर आ गई है, हर तीन में से एक स्कूल का बच्चा अस्थमा (दमे) या सांस से जुड़ी बीमारियों से जूझ रहा है. लंग केयर फाउंडेशन और पल्मोकेयर रिसर्च एंड एजुकेशन (PURE) फाउंडेशन की 2021 की रिपोर्ट में यह जानकारी साझा की गई है.
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने राजधानी के डॉक्टरों से बच्चों में सांस संबंधी समस्याओं पर आंकड़े मांगे हैं. इस पर हुई एक बैठक में आयोग ने कहा कि वह इस डेटा के आधार पर बच्चों के लिए श्वसन रोगों के इलाज से संबंधित दिशानिर्देश तैयार करेंगे.
नवंबर के दौरान जब वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) बेहद खराब श्रेणी में था, तब न्यूज़लॉन्ड्री ने अपनी पड़ताल में पाया कि कई माता-पिता अपने बच्चों की सांसों से जुड़ी बिमारियों का इलाज कराने के लिए नई दिल्ली के तीन सरकारी अस्पतालों की कतार में खड़े थे.
‘हर साल सांस लेना मुश्किल होता जा रहा है’
लाल बहादुर शास्त्री अस्पताल के भीड़भाड़ वाले बाल रोग विभाग में मोहिनी, जो एक निजी स्कूल में सफाईकर्मी हैं, अपने आठ साल के बेटे अर्जुन को गोद में लेकर बैठी थीं. अर्जुन पिछले दो साल से अस्थमा से पीड़ित हैं. मोहिनी ने बताया, “हर साल नवंबर और दिसंबर में उसकी सांस की तकलीफ बढ़ जाती है…घर में खेलने की जगह नहीं है और बाकी बच्चे बाहर खेलते हैं तो वह भी उनके साथ जाना चाहता है.”
संगम विहार की रहने वाली मोहिनी ने घरेलू उपायों का सहारा लिया लेकिन कोई राहत नहीं मिली. अब वह अस्पताल में डॉक्टर से मिलने और रियायती दर पर अस्थमा इनहेलर लेने आई थीं.
यह स्थिति सिर्फ मोहिनी और अर्जुन तक सीमित नहीं है. दिल्ली के कई माता-पिता को हर साल प्रदूषण के बढ़ते स्तर के कारण अपने बच्चों के इलाज के लिए अस्पतालों का रुख करना पड़ता है. भलस्वा की कचरा बीनने वाली निधि को अपनी चार साल की बेटी मीरा के साथ अस्पताल पहुंचने में दो घंटे लगे. निधि ने बताया कि वह हर सुबह जब कचरा बीनने जाती हैं तो अपनी बेटी को भी साथ ले जाती हैं. इसका उसकी सेहत पर गहरा असर पड़ा है.
निधि ने कहा, "हमारे पास ज्यादा साधन नहीं हैं और यही वजह है कि हमारे बच्चों को सबसे ज्यादा मुश्किलें झेलनी पड़ती हैं. पड़ोस में किसी ने बताया कि यहां के डॉक्टर उसकी खांसी की तकलीफ में मदद कर सकते हैं. यह सिर्फ प्रदूषण का असर नहीं है बल्कि काम के दौरान हम जो धूल मिट्टी में सांस लेते हैं वही सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाती है. हम दिनभर इसी माहौल में सांस लेते हैं."
गुरुग्राम के शेल्बी सनर इंटरनेशनल हॉस्पिटल के ईएनटी विभाग के प्रमुख, डॉ. अमित शर्मा ने बताया कि "पिछले दो वर्षों (2022 से 2024) में बच्चों में नेबुलाइजर के इस्तेमाल की जरूरत में 12 से 15 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है."
‘वॉरियर मॉम्स’ – माताओं के एक नेटवर्क – और स्थानीय केमिस्ट के एक सर्वे में यह पाया गया कि दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के चरम समय के दौरान नेबुलाइजर और इनहेलर की मांग में तेजी से बढ़त हुई है. रिपोर्ट के अनुसार, नेबुलाइजर खरीदने वालों में से एक तिहाई से ज्यादा माता-पिता थे. उत्तर दिल्ली में प्रतिदिन करीब 17 नेबुलाइजर बेचे गए. वहीं, अस्थालिन और लेवोलिन इनहेलर की बिक्री में 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखी गई. दक्षिण और मध्य दिल्ली में प्रतिदिन लगभग 10 नेबुलाइजर की खरीद दर्ज की गई.
मरीजों की बढ़ती संख्या
दिल्ली की जहरीली हवा में सांस लेने वाले 30 से 40 प्रतिशत बच्चों को आने वाले वर्षों में अस्थमा होने की संभावना है. यह चेतावनी नियो क्लिनिक के निदेशक और श्री बालाजी एक्शन मेडिकल इंस्टीट्यूट में श्वसन चिकित्सा के वरिष्ठ सलाहकार डॉ. अंकित सिंघल ने दी है.
2019 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायरनमेंटल हेल्थ रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, “महामारी विज्ञान से जुड़े अध्ययन बताते हैं कि शहरी निवासियों में ग्रामीण आबादी की तुलना में हृदय रोग, फेफड़ों के कैंसर और श्वसन संबंधी बीमारियों (ब्रोंकाइटिस और श्वसन तंत्र संक्रमण) का खतरा अधिक होता है.”
अरुणा आसिफ अली अस्पताल की एक बाल रोग विशेषज्ञ ने बताया कि वह हर दिन लगभग 15 बच्चों का इलाज कर रही हैं जबकि कुछ हफ्ते पहले तक केवल दो या तीन मरीज आते थे. उन्होंने कहा, "बच्चों के फेफड़े अभी विकसित हो रहे हैं और प्रदूषित हवा के संपर्क में आना इस विकास को बाधित कर सकता है."
डॉ. सिंघल ने इस प्रवृत्ति की पुष्टि करते हुए कहा, "बच्चों में सांसों से जुड़ी समस्याएं तेजी से बढ़ रही हैं."
अस्पताल के भीड़भाड़ वाले प्रतीक्षा कक्ष में कई माता-पिता अपने बीमार बच्चों को गोद में लेकर इंतजार करते दिखे. अधिकांश के पास मास्क नहीं था. उनमें से एक, ईस्ट विनोद नगर की घरेलू कामगार दोलन, अपनी सात साल की बेटी तनिष्का को गोद में लिए उसकी लगातार खांसी से परेशान दिखीं.
दोलन ने न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कहा, "देखिए इसकी हालत कितनी खराब है. पिछले दस दिनों में मैं तीसरी बार इसे यहां लाई हूं. डॉक्टरों ने अभी तक अस्थमा की पुष्टि नहीं की है लेकिन मुझे नहीं पता इसके अलावा इसे और क्या बिमारी हो सकती है. मेरे एक मालिक ने तनिष्का के इलाज के लिए कुछ अतिरिक्त पैसे दिए लेकिन हर बार ऐसा नहीं हो सकता."
दोलन दो बच्चों की मां हैं. उसने बताया कि वह और उसका पति काम पर रहते हैं जबकि उनके बच्चे एक कमरे के घर में रहते हैं. "घर में सिर्फ एक छोटा सा गेट है और कोई खिड़की नहीं. इसलिए वे ज्यादातर समय बाहर खेलते हैं."
‘चारदीवारी में जगह की कमी’
गीता कॉलोनी स्थित चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में नौ वर्ष के कबीर अपने पिता दमन के साथ दिखे. दमन पेशे से एक ऑटो चालक हैं. अपने बेटे की गंभीर हालत से परेशान थे. कबीर की आंखें लाल थीं, बाजुओं पर चकत्ते थे और तेज बुखार से उसका शरीर तप रहा था.
दमन ने बताया, "पहले लगा कि यह साधारण फ्लू है, लेकिन जब खुजली और लालिमा कम नहीं हुई तो अस्पताल लाना पड़ा."
डॉक्टरों ने कबीर को हल्के श्वसन संक्रमण की दवाइयां दीं. दमन मूलत: बिहार से हैं और पास के एक झुग्गी-झोपड़ी क्लस्टर में रहते हैं. दमन ने आगे कहा, "वायु प्रदूषण मेरे बेटे की उम्र खा रहा है. स्कूल बंद होने के बाद बच्चे ज्यादा समय बाहर खेल रहे हैं. हमारे पास इतनी जगह नहीं है कि उन्हें अंदर रख सकें."
नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने एनसीआर में बढ़ते प्रदूषण के चलते स्कूलों को बंद करने का आदेश दिया था, जब शहर प्रदूषण नियंत्रण के GRAP-IV एमरजेंसी फेज में प्रवेश कर चुका था. हालांकि, कई परिवारों का मानना था कि प्रदूषित माहौल से बचने का यह कोई उपाय नहीं. कोर्ट का यह फैसला परिवारों के लिए मजबूरी से भरा हुआ था क्योंकि उनके बच्चों को हर दिन जहरीली हवा में सांस लेना पड़ता है.
चार वर्षीय खुशी, अपने पिता बृजेश के साथ अस्पताल में दिखीं. बृजेश जो एक फैक्ट्री में काम करते हैं और गीता कॉलोनी की झुग्गी में रहते हैं, ने कहा कि उनकी बेटी लगातार छींक रही है, खासतौर पर सुबह के समय और यह समस्या उसे बेचैन कर रही है.
बृजेश ने कहा, "पहले हमने इसे साधारण सर्दी समझा लेकिन तीन दिनों तक सुधार नहीं हुआ तो मुझे शक हुआ कि यह महज सर्दी नहीं है. डॉक्टर ने बताया कि यह धूल और प्रदूषण से हुई एलर्जी हो सकती है. डॉक्टर ने दवाइयां दी हैं."
चिंतन एनवायरनमेंटल रिसर्च एंड एक्शन ग्रुप की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली-एनसीआर के 89 प्रतिशत स्कूल के बच्चे जलवायु परिवर्तन को लेकर गंभीर रूप से चिंतित हैं. यह सर्वे 10 से 15 वर्ष की उम्र के 423 छात्रों पर किया गया था जो विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं.
आईआईटी दिल्ली के सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक साइंसेज के प्रोफेसर और कोरिया यूनिवर्सिटी, सियोल के एडजंक्ट प्रोफेसर सागनिक डे के अनुसार, वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चे वायु प्रदूषण के हानिकारक प्रभावों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील होते हैं. उन्होंने कहा कि गरीबी में रहने वाले, सीमित शिक्षा और खराब पोषण वाले बच्चे और वे जो ठोस ईंधन से खाना पकाने के धुएं के संपर्क में आते हैं, उनके स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण का असर अधिक होता है.
डे ने कहा, “ये बच्चे उच्च स्तर के PM 2.5 के संपर्क में आते हैं, जो उनके स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव डालता है.” उन्होंने यह भी बताया कि वायु प्रदूषण का असर बच्चे के स्वास्थ्य पर जन्म से पहले शुरू हो जाता है और उनके शुरुआती वर्षों तक जारी रहता है.
डे ने बताया कि कई अध्ययनों ने वायु प्रदूषण को गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से जोड़ा है, जिनमें बौनापन और वेस्टिंग, कम वजन, बचपन में खून की कमी (एनीमिया), अस्थमा, निमोनिया, फेफड़ों का कमजोर विकास, तीव्र श्वसन संक्रमण और लंबे समय तक चलने वाले प्रभाव जैसे एथेरोस्क्लेरोसिस, विकास में देरी और कमजोर शैक्षणिक प्रदर्शन शामिल हैं.
ग्लोबल अस्थमा रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भारत में अस्थमा से पीड़ित एक कम आय वाले व्यक्ति को अपनी बचत का 80 प्रतिशत हिस्सा दवाइयों पर खर्च करना पड़ सकता है.
लांसेट रीजनल हेल्थ-साउथईस्ट एशिया रिपोर्ट 2024 ने यह रेखांकित किया कि कम उम्र, खराब आवास, हानिकारक ईंधन का उपयोग, खुले में शौच, और उच्च पीएम 2.5 स्तर जैसे कारक बच्चों में श्वसन बीमारियों से जुड़े हुए हैं. सागनिक डे ने बताया कि "संस्थागत संसाधनों और वित्तीय बाधाओं के कारण भारत विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों के मुताबिक 10 लाख की आबादी पर कम से कम एक मॉनिटर स्थापित करने वाला ग्राउंड-बेस्ड मॉनिटरिंग नेटवर्क नहीं बढ़ा पा रहा है."
अनुवाद- चंदन सिंह राजपूत
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