सीताराम येचुरी के जीवन के अनेक पहलू हैं. हालांकि, उनके जीवन का सबसे खास पहलू है वामपंथ और भारत की मुख्य धारा की राजनीति के बीच कड़ी की तरह उनकी राजनीतिक मौजूदगी. एक सिद्धांतवादी और मार्क्सवादी विचारक के तौर पर उन्होंने कभी भी अपनी प्रतिष्ठा और गंभीरता के साथ समझौता नहीं किया. लेकिन साथ ही वामपंथी राजनीति को जन- जन तक पहुंचाया और तात्कालिक राजनीतिक उथल-पुथल के प्रति सक्रिय भी रखा.
वामपंथी साहित्य पर अपनी मजबूत पकड़ के बावजूद लगातार बदलती राजनीतिक परिस्थितियों एवं तमाम राजनीतिक आवेगों से वामपंथ को जोड़ने के लिए उन्होंने समय-समय पर अपनी भूमिका में बदलाव किया. यह शायद उनके पांच दशक के राजनीतिक जीवन की सबसे प्रभावशाली छाप है, जो देश में वामपंथी राजनीति और सत्ता के खेल के अलग-अलग पहलुओं को सामने रखती है.
सीताराम येचुरी छात्र राजनीति से उभरते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सिस्ट) के शीर्ष नेताओं में शुमार हुए. उनके निधन की एक शाम पहले वह सीपीआईएम के महासचिव के तौर पर अपने तीसरे कार्यकाल में थे. इस पद पर वह वर्ष 2015 से थे. इस पद के लिए उन्हें पहली बार चुना गया था.
हालांकि, यह भी एक संयोग ही है कि जिस वक्त वह वाम के शीर्ष नेता बने, उस दौरान वाम राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर अपने सबसे कमजोर दौर में रही.
सीताराम येचुरी महज 32 साल की उम्र में पार्टी की केन्द्रीय समिति सदस्य बने और 1992 में उन्हें सिर्फ 40 साल की उम्र में पोलित ब्यूरो का सदस्य बनाया गया. जिस तरह का उनका व्यक्तित्व था उस हिसाब से यह शीर्ष पद उन्हें मिलना तय था. लेकिन उन्होंने जब यह पद संभाला, उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती वाम की देश में कमजोर स्थिति थी.
उस दौरान पार्टी का प्रभाव केरल तक सीमित था और 2011 में पश्चिम बंगाल भी तृणमूल कांग्रेस के हाथों में चला गया. साल 2018 में यही हाल त्रिपुरा में हुआ, जब भारतीय जनता पार्टी ने सीपीआईएम को सत्ता से बाहर कर दिया.
अपने सभी पार्टी कामरेड के बीच येचुरी कूटनीतिक स्तर पर इस तरह के कठिन दौर से पार पाने में कहीं ज्यादा काबिल थे. इस वजह से ही वह राजनीति में आजीवन प्रासंगिक बने रहे.
सीताराम येचुरी का जन्म आज़ाद भारत के तेलगु भाषी एक परिवार में अगस्त 12, 1952 को हुआ. माता-पिता दोनों सरकारी नौकरी में थे. आंध्र प्रदेश से शानदार रिकॉर्ड के साथ अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में दाखिला लिया. उसके बाद उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से हासिल की. यहां उन्होंने अर्थशास्त्र की पढ़ाई की.
जेएनयू ही वह नर्सरी थी, जहां उन्होंने राजनीति का ककहरा सीखा. इसी जेएनयू में उन्होंने राजनीति में आने का सपना देखा और पूरा भी किया.
वह जेएनयू में ही स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (सीपीआईएम का छात्र संगठन) के नेता बने. अपने सीनियर प्रकाश करात के साथ उन्होंने वाम को जेएनयू में छात्र राजनीति को मजबूत किया. वो दौर लोगों के मन में आज भी अमिट छाप की तरह है जब येचुरी ने जेएनयू की तत्कालीन आधिकारिक कुलपति इंदिरा गांधी (तत्कालीन प्रधानमंत्री) को छात्रों के प्रस्ताव सुना रहे थे. इस प्रस्ताव में इंदिरा गांधी द्वारा कुलपति पद से त्याग पत्र देने की भी मांग की गई थी.
येचुरी आगे चलकर एसएफआई के अध्यक्ष बने. इससे पहले केवल केरल या पश्चिम बंगाल से ही एसएफआई के अध्यक्ष चुने गए थे. उन्होंने इस चलन को तोड़ा.
डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सीपीआईएम यूपीए-1 गठबंधन का अहम हिस्सा बना. तब तक येचुरी तत्कालीन सीपीआईएम के महासचिव से भी पहले पोलित ब्यूरो में डेढ़ दशक गुजार चुके थे. उन्होंने गठबंधन में अन्य पार्टियों को और अधिक जगह देने की वकालत की थी. उन्होंने मतभेदों से बढ़ती दूरी और आख़िर में अलग अलग रास्ते हो जाने की चुनौती को गठबंधन से दूर रखा.
2008 में हुए भारत-अमेरिका न्यूक्लियर समझौते के दौरान सीताराम येचुरी, प्रकाश करात के यूपीए 1 से समर्थन वापस लेने के फैसले से सहमत नही थे.
अमेरिकी विदेश नीति के आलोचक होने के बावजूद उन्होंने इसके दूरगामी परिणाम और देशों के बीच संवेदनशील संबंधों को हमेशा आगे रखा. उन्होंने यही रुख गठबंधन पार्टियों के बीच भी अपनाया. उनका मानना था कि मार्क्सिस्ट विचारधारा की मूल भावना को बिना छेड़े रणनीतिक तरीके से एक परिणाम तक पहुंचा जा सकता था.
येचुरी ने कांग्रेस और अन्य पार्टियों को बड़े तौर पर लेफ्ट से सेंटर के राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर तैयार करने के लिए एक रास्ता खोज लिया था.
तत्कालीन राष्ट्रीय राजनीति की हकीकत को बयान करते हुए उन्होंने कहा कि गठबंधन राजनीति की अत्याधिक आवश्यकता को देखते हुए भी सहयोगी पार्टियों के बीच अलग विचारों का बंधक बना के नहीं रखा जा सकता है. त्रोत्सकी की पंक्ति “चलो अलग-अलग, लेकिन धावा एक साथ बोलो” को मानते हुए वह एक रणनीतिकार के तौर पर आगे आए.
लेकिन उनके अंदर का यह रणनीतिकार और उनके व्यावहारिक नजरिए का मतलब यह नहीं था कि वह अपनी राजनीतिक आलोचना की क्लासिक मार्क्सवादी स्थिति और राजनेता के अपने चरित्र में वापस नहीं लौट सकते थे.
मिसाल के लिए, जब भ्रष्टाचार के घोटालों ने यूपीए-2 सरकार को हिलाकर रख दिया था. उस वक्त, सीताराम येचुरी ने मार्क्सवादी भाषा के 'क्रोनी कैपिटलिज्म' शब्द का इस्तेमाल कर तत्कालीन राजनीतिक हालात पर चुटकी ली थी क्योंकि सिस्टम में क्रोनीवाद (अपने जानकारों के साथ साठ-गांठ कर फायदा पहुंचाना) के लक्षण शामिल थे.
यह उनके मार्क्सवादी होने की वैचारिक स्पष्टता का वक्त था, जिसकी व्यावहारिकता ने उन्हें मार्क्सवादी द्वंद्वात्मकता के व्यापक दायरे से दूर नहीं होने दिया. इसे हम उनके हस्तक्षेपों में भी रख सकते हैं, जब उन्होंने अपनी पार्टी की विदेश नीति शाखा के मुखिया के तौर पर अंतरराष्ट्रीय वामपंथ के वैश्विक दृष्टिकोण के नजरिए से अंतरराष्ट्रीय राजनीति और जन आंदोलनों का विश्लेषण किया.
सीताराम येचुरी ने साल 2005 से 2017 तक पश्चिम बंगाल से राज्यसभा सांसद के तौर पर अपने कार्यकाल में तात्कालिक विषयों और नीतियों के विश्लेषण के साथ सैद्धांतिक विश्लेषण को एक धागे में पिरोये रखा.
उन्होंने जरूरी मसलों पर वामपंथ के नजरिए को साफ तौर से सब के सामने रखा. उन्होंने अपनी उपस्थिति से उलट दृष्टिकोण और शानदार दलीलें राज्यसभा में पेश की. उनके 12 साल के संसदीय कार्यकाल के कुछ यादगार पलों में साल 2011 में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की कार्यवाही के दौरान उनकी टिप्पणी और 2016 में राजद्रोह पर अरुण जेटली के साथ उनकी बहस शामिल है.
भारत के सार्वजनिक जीवन में मार्क्सवादी धारा के लिए चुनौतीपूर्ण और उथल-पुथल सालों में, सीताराम येचुरी की उपस्थिति का मतलब वामपंथ की वैश्विक दृष्टि को भारतीय सामाजिक यथार्थ और राजनीतिक धारा के मुताबिक ढालने की लगातार कोशिश थी.
भारत में वाम की राजनीति को फिर से खड़ा करने के लिए उन्होंने कहा था इसे बौद्धिक तौर पर खुद को आंकना होगा और संगठनात्मक स्तर पर फेरबदल करने होंगे. विचारों के तमाम द्वंद्व के बीच येचुरी ने एक मार्क्सवादी प्रयास के सतत छात्र के तौर पर इसे भारत के राजनीतिक पर्यावरण में लागू किया था.
अनुवाद- चंदन सिंह राजपूत
Newslaundry is a reader-supported, ad-free, independent news outlet based out of New Delhi. Support their journalism, here.