
सरकार किस हद तक हिंसा के चित्रण को कंट्रोल कर सकती है और क्या स्क्रीन पर दिखाई गई हिंसा समाज की वास्तविकता का प्रतिबिंब मात्र है? केरल हाईकोर्ट ने मंगलवार को ये सवाल हेमा समिति की रिपोर्ट से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान पूछा.
न्यायमूर्ति ए.के. जयशंकरन नांबियार और न्यायमूर्ति सी.एस. सुधा की खंडपीठ हेमा समिति की रिपोर्ट से जुड़े मामलों की सुनवाई कर रही थी. यह रिपोर्ट मलयालम फिल्म उद्योग में महिलाओं को लेकर है.
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक, केरल महिला आयोग के वकील द्वारा सिनेमा में हिंसा के मुद्दे को उठाने के बाद कोर्ट ने यह माना कि फिल्मों में हिंसा को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाए जाने से लोगों पर प्रभाव तो पड़ता है. हालांकि, कोर्ट ने साथ ही ये भी कहा कि यह भी देखना होगा कि कहीं फिल्में वही तो नहीं दिखा रही हैं जो समाज में घट रहा है. कोर्ट ने महिला आयोग से यह भी पूछा कि ऐसे मामलों में राज्य या सरकार किस हद तक दखल दे सकते हैं?
इसके बाद कोर्ट ने कहा कि इस तरह के तमाम पहलुओं को किसी भी कानून को लागू करते समय ध्यान में रखना चाहिए. गौरतलब है कि फिल्मों के सेट पर महिलाओं का उत्पीड़न रोकने के लिए कानून बनाने की बात उठी थी.
दरअसल, साल 2017 में केरल में एक शीर्ष महिला अभिनेत्री का अपहरण कर यौन उत्पीड़न किया गया. इस मामले में प्रसिद्ध अभिनेता दिलीप का नाम आया. इसके बाद हेमा समिति का गठन किया गया ताकि इस तरह के मामलों की जांच की जा सके.
इसी के साथ कोर्ट ने ड्राफ्ट कानून की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए कहा कि प्रस्तावित कानून न केवल मनोरंजन उद्योग को कवर करेगा बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी इस कानून के तहत काम होगा. इसी के साथ अमेरिक्स क्यूरी को यह निर्देश दिया गया की वह सभी संबंधित सामग्रियों की जांच करें, ताकि ड्राफ्ट कानों को अंतिम रूप दिया जा सके.
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