
इसमें संदेह नहीं कि आज का जो चमकता-दमकता भारत है, विकास के मानकों पर तेज़ी से दौड़ता और अपने लिए तरह-तरह के लक्ष्य तय करता भारत है, वह संभव नहीं होता अगर मनमोहन सिंह ने 1991 के आर्थिक सुधारों का चक्का नहीं चलाया होता. आज आर्थिक सुधारों पर- उदारीकरण, निजीकरण और खगोलीकरण पर- जो राजनीतिक, बल्कि राष्ट्रीय- आम सहमति नज़र आ रही है, वह इन दिनों बिल्कुल नहीं थी और वाम से दक्षिण तक की राजनीति इसके विरुद्ध खड्गहस्त थी. यह उदारीकरण न वामपंथ की सैद्धांतिकी को रास आ रहा था न बीजेपी-संघ के तथाकथित स्वदेशी प्रेम को. बैंकों को, बीमा को या दूसरे क्षेत्रों को निजी क्षेत्र के लिए खोलने के फैसलों के ख़िलाफ़ तब जुलूस निकाले जाते थे. यहां तक कि कांग्रेस के भीतर भी इन सुधारों को संदेह की नज़र से देखा जा रहा था.
लेकिन शायद यह देश की मजबूरी थी- जो चंद्रशेखर सरकार के समय सोना गिरवी रखने की नियति तक पहुंची थी- कि भारत को अपनी आर्थिक नीतियों मे बदलाव करना था. इसके पीछे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक का दबाव भी बताया जाता था और चर्चा यहां तक चलती है कि उसी दबाव में नरसिंह राव ने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाने का फ़ैसला किया था.
मगर मनमोहन सिंह का आना एक बात है और भारत की उलझी हुई सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के बीच अपना रास्ता बनाना दूसरी बात. मनमोहन सिंह ने यह काम बहुत क़रीने से किया. भारत के सम्मान को खरोंच लगाए बिना उन्होंने देसी पूंजी के लिए रास्ते आसान किए और विदेशी पूंजी के लिए राह खोली- और यह सारा काम उन्होंने ऐसी सरकार के रहते किया जिस पर तरह-तरह के आरोप लग रहे थे. बेशक, उन्हें झटके भी लगे, जब शेयर बाज़ार के अनिश्चित उछाल पर अपनी नींद खराब न करने जैसा बयान देते हुए उन्होंने हर्षद मेहता जैसे खिलाड़ियों की अनदेखी की, जिनकी वजह से करीब 30,000 करोड़ रुपये का प्रतिभूति घोटाला हो गया. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन तमाम घपले-घोटालों के बीच मनमोहन सिंह की छवि बिल्कुल बेदाग़ रही. देश और दुनिया को भरोसा था कि उनका वित्त मंत्री ऐसा है जो किसी घपले में शामिल नहीं हो सकता. यह भी एक वजह रही जिसने उदारीकरण की राह भारत में आसान बनाई.
Manmohan Singh Ji led India with immense wisdom and integrity. His humility and deep understanding of economics inspired the nation.
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) December 26, 2024
My heartfelt condolences to Mrs. Kaur and the family.
I have lost a mentor and guide. Millions of us who admired him will remember him with the… pic.twitter.com/bYT5o1ZN2R
हालांकि, यह बात अपने-आप में बहसतलब है कि यह उदारीकरण न आया होता तो भारतीय समाज कैसा होता. संभव है, यहां कुछ कम संपन्नता होती, लेकिन क्या हम ज्यादा समतावादी समाज होते? आखिर क्यों इस उदारीकृत भारत में- इक्कीसवीं सदी की महाशक्तियों में शुमार होने की चाहत रखने वाले एक देश में- 80 करोड़ लोगों को मुफ़्त राशन देना पड़ता है? हालांकि, इस सवाल का कोई आसान जवाब देना संभव नहीं है. कोई स्वप्नशील दृष्टि ही इस यथार्थ की उपेक्षा कर सकती है कि यह जो नई अर्थव्यवस्था है अंततः उसने एक बड़ा खाता-पीता मध्यवर्ग पैदा किया है. जिसके भोजन की आदतों में बदलाव पर कभी अमेरिकी राष्ट्रपति को भी टिप्पणी करने की ज़रूरत महसूस होती है.
दूसरी बात यह कि मनमोहन सिंह ने जो शुरुआत की थी, उसे बदलने के अवसर दूसरों को मिले. 1996 में संयुक्त मोर्चे की सरकार बनी और 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने एनडीए की सरकार बनाई. लेकिन उदारीकरण का चक्का रोकने की जगह तमाम सरकारों ने उसे और रफ़्तार दी. जाहिर है, अर्थतंत्र में बदलाव की जो अपरिहार्यता थी- उसके सामाजिक-सांस्कृतिक नतीजे जो भी होने थे- उसके सामने भारतीय राजनीति को आत्मसमर्पण करना ही था. इसलिए स्वदेशी के सारे जुमले पीछे छूट गए, आलू चिप्स और कंप्यूटर चिप्स वाली बहस बेमानी हो गई और आज की तारीख़ में हमारे प्रधानमंत्री उदारीकरण को अगले चरण में ले जाने की मुहिम के सबसे बड़े प्रवक्ता बने हुए हैं.
बहरहाल, मनमोहन सिंह की एक भूमिका अगर वित्त मंत्री की रही तो दूसरी प्रधानमंत्री की. अपने कार्यकाल के आख़िरी दिनों में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा था कि शायद इतिहास उनके साथ न्याय करेगा. न्याय का निर्णय करने के लिहाज से शायद यह जल्दबाज़ी भरा समय है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उनके दस साल के शासनकाल में जो ऐतिहासिक उपलब्धियां रहीं, उनका ठीक से सेहरा उनकी सरकार के सिर नहीं गया. उल्टे यूपीए के दौर के भ्रष्टाचार के मामलों ने ऐसी सुर्खियां बनाईं कि मनमोहन सिंह की सरकार चली गई. लेकिन ध्यान से देखें तो मनमोहन सरकार के कई फ़ैसले ऐसे रहे जिन्हें क्रांतिकारी माना जा सकता है. सूचना का अधिकार, मनरेगा यानी रोज़गार का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, और भूमि अधिग्रहण क़ानून जैसे अहम फैसले उन्हीं के दौर में हुए. सूचना के अधिकार ने शासन तंत्र को पारदर्शी बनाया, मनरेगा ने रोज़गार का भूगोल बदल डाला- गांवों तक संपन्नता पहुंचाई, शिक्षा के अधिकार की बदौलत महंगे स्कूलों में गरीबों की पढ़ाई संभव हुई और भूमि अधिग्रहण कानून ने सुनिश्चित किया कि किसानों की ज़मीन औने-पौने दाम नहीं ली जा सकती. इस क़ानून को बदलने के लिए मोदी सरकार ने कई कोशिशें कीं, लेकिन बदल नहीं सकी. मनरेगा का मोदी मज़ाक बनाते थे, लेकिन वह उनकी प्राथमिक योजनाओं में शामिल है.
Undoubtedly, history shall judge you kindly, Dr. Manmohan Singh ji!
— Mallikarjun Kharge (@kharge) December 26, 2024
With the passing of the Former Prime Minister, India has lost a visionary statesman, a leader of unimpeachable integrity, and an economist of unparalleled stature. His policy of Economic Liberalisation and… pic.twitter.com/BvMZh3MFXS
माना जाता है कि मनमोहन सिंह को सोनिया की मेहरबानी से सत्ता मिली और इनमें से बहुत सारे फ़ैसले सोनिया गांधी के दबाव में हुए. बेशक, यूपीए सरकार अधिकारों और दायित्वों के बंटवारे के मामले में एक आदर्श पेश करती थी. यह संभव नहीं था कि बस सोनिया चाहतीं और मनमोहन सिंह न चाहते तो ये सारे फैसले हो जाते. वे परस्पर सम्मान और सामूहिक उत्तरदायित्व के साथ लिए गए फ़ैसले थे. बल्कि एक उदाहरण ऐसा है जो याद दिलाता है कि मनमोहन सिंह ने एक फ़ैसला बिल्कुल अपनी मर्ज़ी से किया. 2008 में जब अमेरिका के साथ ऐटमी करार की बात चल रही थी तो वामदलों के विरोध की वजह से यूपीए में लगभग आम सहमति सी बन चुकी थी कि सरकार इस करार से पीछे हट जाए. लेकिन मनमोहन सिंह को यह करार ज़रूरी लग रहा था और उन्होंने आगे बढ़ कर यह काम किया. इस प्रक्रिया में वाम दलों ने सरकार से समर्थन वापस लिया, लेकिन बाक़ी यूपीए ने पूरे सम्मान के साथ मनमोहन सिंह के फ़ैसले को स्वीकार किया.
दरअसल, मनमोहन सिंह अपने समय की कई विडंबनाओं के भी शिकार रहे. भ्रष्टाचार के जो आरोप उनकी सरकार पर लगे, वे भारतीय राजनीति में आमफहम थे, लेकिन मनमोहन ने अपना बचाव नेताओं की तरह नहीं किया. 2017 में प्रधानमंत्री मोदी ने जब उन पर रेनकोट लेकर नहाने का तंज किया था तो इस टिप्पणी में यह विडंबना झांकती थी कि हमारी राजनीति में एक शरीफ़ नेता किस कदर अरक्षित और वेध्य हो सकता है.
India mourns the loss of one of its most distinguished leaders, Dr. Manmohan Singh Ji. Rising from humble origins, he rose to become a respected economist. He served in various government positions as well, including as Finance Minister, leaving a strong imprint on our economic… pic.twitter.com/clW00Yv6oP
— Narendra Modi (@narendramodi) December 26, 2024
मनमोहन सिंह शायद इतिहास की प्रतीक्षा करते रह गए- इस उम्मीद में कि देश एक दिन उन्हें समझेगा. आज सरकारें अपनी स्टांप साइज़ उपलब्धियों को भी पोस्टर साइज़ बनाकर पेश करती हैं. एक-एक ट्रेन को हरी झंडी दिखाने सीधे प्रधानमंत्री जाते हैं लेकिन मनमोहन सिंह ने पोस्टर बनाने लायक भी जो काम किए, उन्हें स्टांप बराबर भी नहीं बेचा.
2004 से 2014 के बीच की आर्थिक रफ़्तार देखें और उसमें 2008 की मंदी के झटके को शामिल करें तो समझ में आएगा कि वे कितनी खामोशी से इस देश को संपन्नता की राह पर ले जाते रहे. बिना ढिंढोरा पीटे उन्होंने देश को वहां पहुंचा दिया जहां से आने वाली सरकारों का काम कुछ आसान हो गया.
इतिहास निश्चित ही उन्हें उदारता से याद करेगा.
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