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प्रतीक गोयल

बिना तनख्वाह के खतरों का सामना: मुकेश चंद्राकर का जीवन बस्तर में मीडिया की कहानी की मिसाल है

1 जनवरी को मुकेश चंद्राकर ने मुझे व्हाट्सएप पर एक स्टोरी का लिंक भेजा, जिस पर उन्होंने और नीलेश त्रिपाठी ने मिलकर काम किया था. यह स्टोरी नक्सल प्रभावित बस्तर के स्कूलों की स्थिति के बारे में थी. तीन घंटे बाद वह लापता हो गया.

मुझे मुकेश के बारे में एक अन्य पत्रकार मित्र से पता चला, जिसने मुझे 3 जनवरी को फोन किया था. उसने बताया कि मुकेश दो दिन से लापता है. मुकेश के फोन से आखिरी कॉल रात 8.28 बजे उसके रिश्तेदार रितेश चंद्राकर को की गई थी, जो 2 जनवरी की रात को दिल्ली के लिए फ्लाइट पकड़ने के बाद से लापता था. मुकेश के भाई युकेश ने पुलिस में गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई थी. उसने मुकेश के यूट्यूब चैनल पर एक वीडियो भी अपलोड किया, जिसमें मदद की अपील की गई. युकेश चंद्राकर ने वीडियो में कहा, “मेरा भाई असली हीरो है. आज मुझे ऐसा नहीं लग रहा कि मैं उसका बड़ा भाई हूं. ऐसा लग रहा है कि मैंने आज एक बच्चे को खो दिया है.”

कुछ घंटों बाद, मुकेश के मामले की जांच के लिए बीजापुर पुलिस द्वारा गठित विशेष टीम को उसके घर के पास के इलाके में एक सेप्टिक टैंक में एक शव मिला, जो मुकेश के फोन पर आखिरी लोकेशन थी. शाम करीब 5.26 बजे मेरे दोस्त ने मुझे शव के बारे में बताने के लिए फोन किया. मेरे दोस्त ने मुझे बताया कि यह पुष्टि नहीं हुई है कि यह शव मुकेश का है, लेकिन संभावना थी कि ऐसा हो. मैं जो सुन रहा था, उस पर मुझे यकीन नहीं हो रहा था. हम सभी को उम्मीद थी कि यह मुकेश नहीं होगा.

दो घंटे बाद, सेप्टिक टैंक में मिले शव की पुष्टि मुकेश चंद्राकर के रूप में हुई.

मेरे दोस्त और साथी पत्रकार को बेरहमी से पीटा गया और मार दिया गया. वह 32 साल का था. मामले में मुख्य संदिग्ध? ठेकेदार सुरेश चंद्राकर, जिसने हाल ही में एक भव्य शादी की थी, जिसके लिए उसने एक हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल किया था और रूसी नाचने वाली लड़कियों को बुलाया था. वह मुकेश का दूर का रिश्तेदार भी था.

वो कहानी जिसने मुकेश की जान ली

19 दिसंबर, 2024 को मुकेश चंद्राकर, समाचार चैनल एनडीटीवी के अपने सहकर्मी नीलेश त्रिपाठी के साथ मुतावेंदी गए. दोनों ने 10 साल तक साथ काम किया था और कई प्रोजेक्ट पारस्परिक सहयोग से पूरे किए थे. इस बार वे पिछले साल गोलीबारी में फंसी छह महीने की बच्ची की दुखद मौत के साथ-साथ, क्षेत्र में बारूदी सुरंगों से हुई मौतों पर रिपोर्ट कर रहे थे. उन दोनों ने नए स्कूलों की स्थिति, शिक्षकों के वेतन और क्षेत्र में सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन पर भी रिपोर्ट की.

मुतावेंदी जाते समय मुकेश और नीलेश ने एक नवनिर्मित सड़क की खराब स्थिति देखी और बीजापुर लौटते समय, नीलेश ने सड़क की खराब गुणवत्ता पर एक रिपोर्ट की. उन्होंने कहानी का शीर्षक दिया "जहां शहीद हुए जवान, वहां क्यों हो रहा है घटिया सड़क निर्माण?" यह खबर 24 दिसंबर, 2024 को प्रसारित हुई और इसने लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा. एक दिन के भीतर सरकार ने इस पर ध्यान दिया और नक्सली इलाकों में जाने वाली सड़क के निर्माण पर जांच के आदेश दिए.

सड़क पर स्टोरी करने का फैसला अचानक लिया गया. नीलेश याद करते हुए कहते हैं, "सड़क गंगलूर से नेलसनार तक बनाई गई थी और हम हिरोली तक गए क्योंकि हमें मुतावेंदी जाना था. सड़क की हालत बहुत खराब थी, इसलिए मैंने मुकेश से कहा कि हम बीजापुर वापस जाते समय स्टोरी करेंगे. अपने आप में यह एक आकस्मिक स्टोरी थी, क्योंकि हम कुछ अन्य स्टोरी कवर करने के लिए मुतावेंदी गए थे.”

जब उन्होंने कलेक्टर के कार्यालय में मामले की जांच की, तो उन्हें पता चला कि सुरेश चंद्राकर ठेकेदार थे. कार्यालय के अधिकारियों ने ऑफ द रिकॉर्ड बताया कि उन्होंने "सड़कों के साथ बहुत खराब काम किया".

स्टोरी प्रसारित होने के बाद, मुकेश और नीलेश को कोई धमकी नहीं मिली. वास्तव में, मुकेश ने नीलेश को बताया कि उन्हें लोगों से प्रशंसा के कॉल आ रहे थे.

नीलेश याद करते हुए बताते हैं, "1 जनवरी की शाम को मुकेश और मैंने लंबी बातचीत की. हमारी दोनों कहानियों- एक सड़क निर्माण पर और दूसरी स्कूल पर- ने असर दिखाया था. उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें नक्सलियों के गढ़ पामेड़ में एक और सड़क के बारे में जानकारी मिली है. मैंने उनसे कहा कि हम 26 जनवरी की कहानी पर काम करेंगे. मैं उन्हें 10 सालों से जानता हूं और हमने कई प्रोजेक्ट्स पर साथ मिलकर काम किया है. उस वक्त मुझे बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि यह हमारी साथ में आखिरी कहानी होगी, या मैं उससे आखिरी बार बात कर रहा हूं."

‘कैसे हो दादा?’

मुकेश और मैं नियमित संपर्क में थे. वो मुझे अपनी कहानियां भेजा करता और जब भी मैंने उससे संपर्क किया, उन्होंने मेरी मदद की. जब भी वो मेरा फोन उठाता तो कहता “कैसे हो दादा?” चाहे मैंने किसी से संपर्क करने की जानकारी, पुलिस प्राथमिकी या प्रेस विज्ञप्ति मांगी हो, हमेशा जवाब यही था, “अभी लो दादा.” मुकेश हमेशा साथी पत्रकारों की मदद करने के लिए तैयार रहते थे.

पुलिस और नक्सलियों द्वारा निर्दोष आदिवासियों की हत्याओं, इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में भ्रष्टाचार से लेकर पत्रकारों की सुरक्षा और संरक्षा के मुद्दों तक, मुकेश ने बस्तर के अंदरूनी इलाकों से कई विषयों पर विस्तार से रिपोर्टिंग की थी.

मैंने मुकेश से पहली बार इसलिए बातचीत की क्योंकि वे और उनके बड़े भाई युकेश, पत्रकार गणेश मिश्रा के नेतृत्व में आठ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल (जिनमें से छह पत्रकार थे) का हिस्सा थे, जिसने अप्रैल 2021 में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवान राकेश्वर सिंह मन्हास को नक्सलियों से सफलतापूर्वक रिहा कराया था. मैं रिहाई कराने वाले उस प्रतिनिधिमंडल पर एक स्टोरी कर रहा था.

मुकेश ने बस्तर में पत्रकार होने की कड़वी हक़ीक़त को मेरे साथ साझा किया. उन्होंने मुझसे कहा, "बस्तर में 95 प्रतिशत पत्रकार बिना वेतन के हैं. इस दयनीय व्यवस्था के कारण, कुछ अधिकारियों के साथ काम करते हैं व कुछ ठेकेदार के रूप में, लेकिन यह उनकी गलती नहीं है. उनके पास कोई विकल्प नहीं है. मैं प्रति स्टोरी 250 से 2,500 रुपये कमाता हूं, और 2,500 रुपये केवल तभी मिलते हैं जब यह 'विशेष स्टोरी' हो." उनका कहना था कि एक संघर्ष क्षेत्र में काम करना "बहुत चुनौतीपूर्ण" है, जहां पत्रकारों को पुलिस और माओवादियों दोनों की धमकियों से निपटना पड़ता है. उन्होंने मुझसे कहा, "इसके बावजूद, हम काम करते हैं. लेकिन जो बात हमें परेशान करती है, वह है भुगतान का न होना."

कठिन सवाल पूछना

बस्तर के सुकमा से ग्राउंड रिपोर्टर और मुकेश के दोस्त सलीम शेख, मुकेश को 10 साल से भी ज़्यादा समय से जानते थे. उनकी मुलाकात तब हुई थी जब विवादास्पद पुलिस अधिकारी एसआरपी कल्लूरी बस्तर के महानिरीक्षक थे. उन्होंने कहा, "सरकार और पुलिस के गलत व्यवहार पर रिपोर्ट करना बहुत जोखिम भरा था. खतरों के बावजूद, मुकेश उन गिने-चुने पत्रकारों में से एक थे जिन्होंने इन गलत कामों के खिलाफ़ हिम्मत से आवाज़ उठाई. वह एक कट्टर सत्ता-विरोधी पत्रकार थे, जो लगातार ऐसी कहानियों पर ध्यान केंद्रित करते थे जो जनहित में हों." 

साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मुकेश के पास एक ऐसा नेटवर्क था जिसमें ग्रामीण, नक्सली और पुलिस शामिल थे, जिससे उन्हें अक्सर महत्वपूर्ण जानकारी मिल जाती थी. सलीम ने मुझे बताया, "वास्तव में, हममें से कई लोगों ने मुकेश और युकेश के नेतृत्व में अधिकारियों के डर के बिना कठिन सवाल पूछना सीखा." उन्होंने कहा कि मुकेश अपनी कहानियों की वजह से "हमेशा चर्चा में रहते थे". सलीम ने कहा, "अपने खुलासों की वजह से अक्सर अधिकारियों से उनकी बहस होती थी. वह एक बहादुर पत्रकार थे और उन्होंने कई अन्य ग्राउंड रिपोर्टरों को प्रेरित किया."

कई पत्रकारों ने मुझे बताया कि मुकेश ने पहले भी ठेकेदारों द्वारा घटिया काम की रिपोर्टिंग की थी, जिसकी वजह से वो मुकेश से गहरी दुश्मनी गांठ चुके थे. बस्तर में ठेकेदारों का दायरा छोटा है और उन्हें नक्सल प्रभावित इलाकों में आकर्षक इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं मिलती हैं. आम धारणा ये है कि अधिकारियों और राजनेताओं को इस सौदे में हिस्सा मिलता है, जिसके बदले में ठेकेदार घटिया सामग्री का इस्तेमाल करके अपने घपले को अंजाम दे सकता है.

पत्रकार प्रभात सिंह ने कहा, “सुरेश चंद्राकर उन ठेकेदारों में से एक हैं, जो बस्तर के सुदूर इलाकों में हर सड़क ठेके में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं. ये ठेकेदार घटिया काम करते हैं और काम की गुणवत्ता की जांच करने के लिए जंगलों के अंदर कोई नहीं है. जब पत्रकार ऐसे घटिया काम को उजागर करते हैं, तो ये ठेकेदार प्रभावित होते हैं.” प्रभात और बस्तर के अन्य पत्रकारों का मानना ​​है कि सुरेश चंद्राकर को लगा कि नीलेश की कहानी मुकेश का काम है, क्योंकि उसने पहले भी ऐसी खबरें की हैं.

प्रभात ने अनुमान लगाते हुए कहा, “मुकेश एक पत्रकार था, जिसने सड़कों की खराब स्थिति के बारे में कई बार रिपोर्ट की है. मुकेश द्वारा ठेकेदारों के खराब काम को लगातार उजागर करने से नाराज सुरेश चंद्राकर ने शायद यह मान लिया कि गंगालूर-नेलासनार सड़क पर आलोचनात्मक कहानी के लिए मुकेश जिम्मेदार है, भले ही वास्तव में ये रिपोर्ट नीलेश ने की थी.”

पुलिस जांच के अनुसार ऐसा लगता है कि रितेश चंद्राकर ने ही 1 जनवरी की रात मुकेश को घर बुलाया था. रितेश, सुरेश चंद्राकर का छोटा भाई है. रिश्तेदार होने के अलावा, मुकेश और रितेश के बीच अच्छे संबंध भी थे. 2019 में मुकेश और रितेश उत्तराखंड घूमने गए थे. वे कभी-कभी उस जगह पर साथ में बैडमिंटन खेलते थे, जहां मुकेश की हत्या हुई थी. जाहिर है मुकेश को किसी गड़बड़ी का संदेह नहीं था, और वह रितेश से मिलने के लिए तैयार हो गया.

मुकेश का शव मिलने के बाद जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में बीजापुर पुलिस ने कहा, “1 जनवरी, 2025 की रात को, रितेश चंद्राकर ने मुकेश चंद्राकर से फोन पर बात की और उसे बीजापुर के चट्टान पारा इलाके में सुरेश चंद्राकर की संपत्ति पर रात के खाने के लिए आमंत्रित किया. मुकेश रात के खाने में शामिल हुआ, जहां उनके बीच बहस हुई. बहस के दौरान, रितेश ने मुकेश से सवाल किया कि रिश्तेदार होने के बावजूद वह उनके काम में मदद करने के बजाय उनके काम में बाधा क्यों डाल रहा है.”

सुरेश के लिए सुपरवाइजर के तौर पर काम करने वाले रितेश और महेंद्र रामटेके ने मुकेश के सिर, पेट, पीठ और सीने पर लोहे की रॉड से हमला किया. मुकेश की मौके पर ही मौत हो गई. रितेश और महेंद्र रामटेके ने मुकेश के शव को पास के सेप्टिक टैंक में डाल दिया. बाद में, एक और भाई दिनेश चंद्राकर ने टैंक पर सीमेंट करने का काम अपनी देखरेख में करवाया.

पुलिस ने कहा कि मुकेश की हत्या पूर्व नियोजित थी और इसका मास्टरमाइंड सुरेश चंद्राकर था, जो मुकेश की हत्या के समय जगदलपुर में था. मुकेश की हत्या करने के बाद रितेश ने जगदलपुर में मौजूद सुरेश और दिनेश को इसकी जानकारी दी. इसके बाद वह रामटेके के साथ बोदली चला गया, जहां सुरेश और दिनेश उसके साथ हो लिए. उन्होंने मुकेश के फोन और हत्या में इस्तेमाल की गई लोहे की रॉड को अलग-अलग जगहों पर फेंक दिया.

चंद्राकर के तीनों भाई सुरेश, रितेश और दिनेश और महेंद्र रामटेके को गिरफ्तार कर लिया गया है. पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि उन्होंने मुकेश के साथ कितनी बेरहमी से मारपीट की थी. उसकी खोपड़ी में 15 फ्रैक्चर थे, पांच पसलियां टूटी हुई थीं, उसका लीवर चार हिस्सों में बंटा हुआ था, उसकी गर्दन टूटी हुई थी और उसका दिल फट गया था. आखिरकार मुकेश को उसके हाथ पर बने टैटू से पहचाना गया.

एक दिलेर पत्रकार की स्मृतियां

लेकिन इस भयानक मौत के लिए मुकेश को याद नहीं किया जाना चाहिए. मुकेश के दोस्त और साथी पत्रकार रानू तिवारी ने कहा, "मुकेश खुद एक कहानी थे. उन्होंने अपने जीवन में कई चुनौतियों का सामना किया था."

मुकेश दो साल के थे, जब उन्होंने अपने पिता को खो दिया. परिवार को चलाने की जिम्मेदारी उनकी मां कौशल्या पर आ गई, जो एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता थीं. रानू ने मुझे मुकेश की कहानियां सुनाते हुए कहा, "मुझे याद है कि एक बार जब हम जंगल में घूम रहे थे, तो उन्होंने मुझे बताया कि कैसे वे महुआ और इमली इकट्ठा करते थे. पहले तो मुझे लगा कि यह उनके लिए सिर्फ़ एक मज़ेदार गतिविधि है, लेकिन फिर उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने मजबूरी में ऐसा करना शुरू किया था. उनकी मां एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम करती थीं, जो प्रतिदिन केवल 300 रुपये कमाती थीं, इसलिए वन उपज इकट्ठा करना उनके लिए आय का एक स्रोत था. कठिनाइयों के बावजूद, उन्होंने अपने बच्चों का अच्छे से पालन-पोषण किया."

2009 में कौशल्या की कैंसर से मृत्यु हो गई, तब मुकेश सिर्फ 17 साल के थे. रानू ने कहा, "इसके बाद से दोनों भाई अपने दम पर आगे बढ़े और पत्रकारिता में सफल करियर बनाया."

प्रभात सिंह, उनके एक अन्य मित्र और साथी पत्रकार ने इस कहानी में और भी बातें जोड़ीं. प्रभात बताते हैं, "मुकेश और युकेश 2005 में सलवा जुडूम आंदोलन शुरू होने तक अपनी मां के साथ बासगुड़ा में रहते थे. उस समय यह आक्रामक हो गया और कई निर्दोष लोगों को अपने घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा और उन्हें पुलिस की सुरक्षा में जबरन जुडूम शिविरों में ले जाया गया. मुकेश का परिवार पहले बासगुड़ा में रहता था और बढ़ते संघर्ष के कारण आवापल्ली के एक शिविर में चला गया. उन्होंने आदर्श विद्यालय से अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त की और फिर अपने बड़े भाई युकेश के नक्शेकदम पर चलते हुए 20-21 साल की छोटी उम्र में पत्रकारिता में आ गए.”

रानू ने बताया कि मुकेश ने, युकेश के साथ असाइनमेंट पर जाकर और काम पर ही सीखकर पत्रकारिता में प्रवेश किया. रानू ने मुकेश के बारे में कहा, "वह एक बेहतरीन पत्रकार थे, जो विशेष रूप से अपनी ग्राउंड रिपोर्ट के लिए जाने जाते थे." उन्होंने सहारा समय, बंसल न्यूज़ और न्यूज़ 18 जैसे आउटलेट्स के लिए एक स्ट्रिंगर के रूप में काम किया, लेकिन 2021 में उन्होंने एक साहसिक कदम उठाया और अपना खुद का न्यूज़ चैनल, बस्तर जंक्शन लॉन्च किया. मुकेश के चैनल में गहराई से की गई ज़मीनी पत्रकारिता थी, और इसने जल्द ही लोगों का ध्यान आकर्षित कर लिया.

रानू की आवाज भावुक हो गई जब उन्होंने साथ बिताए दिनों को याद किया. उन्होंने कहा, “जब भी मैं बीजापुर जाता था, मैं मुकेश के साथ ही रहता था. मैं अक्सर मजाक में कहता था कि उनका घर मेरी ‘चंद्रकार धर्मशाला’ है. वास्तव में मैंने जो भी स्टोरी बीजापुर में की, उसमें मुकेश मेरे साथ थे.”

एक बार वे दोनों मोटरसाइकिल पर इंद्रावती नदी के किनारे अभुजमाड गए. रानू ने याद करते हुए बताया, “लगभग चार किलोमीटर तक वे बिना रुके बोलते रहे और गहन कवरेज प्रदान करते रहे. रिपोर्टिंग करते समय इतने विस्तृत विवरण प्रदान करने की उनकी क्षमता हैरतअंगेज़ थी.”

मुकेश का जीवन बस्तर में पत्रकारों के संघर्ष को दर्शाता है और उनकी असामयिक मृत्यु, सत्य की खोज में उनके द्वारा उठाए जाने वाले जोखिमों को उजागर करती है. अपने काम के प्रति उनका समर्पण और उनके सामने आई चुनौतियां हमें यह याद दिलाती हैं कि असली बलिदान तो उन पत्रकारों द्वारा दिया जाता है जो कभी-कभार ही नजर आते हैं, जो अपनी जान जोखिम में डालते हैं ताकि हम अगड़े मोर्चों से खबरें दे सकें.

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