दिल्ली की 7वीं विधानसभा का आखिरी सत्र बुलाया जा चुका है. बीते 4 दिसंबर 2024 को इसका आखिरी दिन था. अब संभवतः अगली सरकार में ही विधानसभा का सत्र बुलाया जाएगा. लेकिन हम यहां सत्र को लेकर नहीं बल्कि विधानसभा में दम तोड़ती एक लोकतांत्रिक परंपरा की बात करेंगे. दरअसल, इस सत्र में भी विधायकों को सवाल पूछने का मौका नहीं मिला क्योंकि इस बार भी प्रश्नकाल नहीं था.
दिल्ली के विधायकों ने आखिरी बार दिसंबर, 2023 में सवाल पूछे थे. उससे पहले मार्च 2022 के सत्र में. दरअसल, केजरीवाल सरकार के दूसरे कार्यकाल में विधायकों को सवाल पूछने का बेहद कम मौका मिला है. वहीं, विधानसभा के सत्र भी कम ही बुलाए गए.
बीजेपी नेता मोहन सिंह बिष्ट, दिल्ली के करावल नगर विधानसभा से 1998 से अब तक पांच बार विधायक रह चुके हैं. बिष्ट, शीला दीक्षित और अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली विधानसभा की कार्यवाही में जमीन-आसमान का अंतर बताते हैं.
बिष्ट कहते हैं, ‘‘शीला दीक्षित, विपक्ष के नेताओं को भी विधानसभा से बोलने का मौका देती थी. हम उनसे सवाल पूछते थे. विधानसभा का सत्र बुलाने से पंद्रह दिन पहले हमें सूचना दी जाती थी. हर विधायक अपना सवाल भेजते थे. अब तो जब राजनीतिक बयान देना होता है तब आम आदमी पार्टी सत्र बुला लेती है. दो दिन पहले सत्र की सूचना दी जाती है.’’
न्यूज़लॉन्ड्री ने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की सरकार के कार्यकाल के दौरान हुई विधानसभा की कार्यवाही की पड़ताल की. हमने कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार के आखिरी दो कार्यकाल यानि 2003 से 2013 तक और आप सरकार के भी पिछले दो कार्यकाल यानि 2015 से 2024 तक को पड़ताल में शामिल किया. इस पड़ताल में हमने अरविंद केजरीवाल के 48 दिन के कार्यकाल को शामिल नहीं किया है.
विधानसभा की वेबसाइट पर मौजूद जानकारी के मुताबिक, शीला दीक्षित के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के दस साल में कुल 216 दिन, वहीं केजरीवाल के नेतृत्व वाली आप सरकार में 177 दिन विधानसभा सत्र चला है. नियम के मुताबिक, एक साल में 66 दिन सदन चलना चाहिए.
दिल्ली की छठी विधानसभा का सत्र 2015 से दिसंबर 2020 के बीच हुआ. इस बीच कुल 105 दिनों तक विधानसभा का सत्र चला. अगर साल-दर-साल के आंकड़ों की बात करें तो 2019 में 12, 2018 में 32, 2017 में 20, 2016 में 15 और 2015 में 26 दिन सदन चला.
वहीं, सातवीं विधानसभा जो अभी चल रही है. यह 2020 से शुरू हुआ. इसका आखिरी सत्र हाल ही में खत्म हुआ है. इस बीच कुल 72 दिन सत्र चला है. यहां भी अगर साल-दर-साल के आंकड़ों की बात करें तो 2020 में 8, 2021 में 8, 2022 में 15, 2023 में 16 और 2024 में 25 दिन सत्र चला है.
शीला दीक्षित की सरकार की बात करें तो तीसरी विधानसभा के दौरान यानि 2003 से 2008 के बीच कुल 115 दिन विधासभा सत्र चला था. अगर साल दर साल चले सत्रों के आंकड़ें देखें तो 2008 में 20, 2007 में 20, 2006 में 23, 2005 में 23, 2004 में 23 और 2003 में 6 दिन ही विधानसभा सत्र की कार्यवाही हुई.
वहीं, चौथी विधानसभा (2008-13) के बीच कुल 101 दिन तक सत्र चला. जिसमें 2009 में 20, 2010 में 23, 2011 में 17, 2012 में 22 और 2013 में 16 दिन शामिल हैं.
आंकड़ों से पता चलता है कि अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली सरकार के दौरान विधानसभा में हुए काम के दिनों में कमी आई है. वहीं, कांग्रेस और आप सरकार के दोनों के समय में विधायक रहे नेताओं की मानें तो सत्र में कमी के साथ एक और बदलाव देखने को मिला कि अब अचानक से सत्र बुलाए जाते हैं. जो एकाध दिनों के लिए होते हैं. जिसका मकसद, राजनीतिक बयानबाजी करना होता है.
मोहन सिंह बिष्ट हाल का ही उदाहरण देते हैं. वो कहते हैं, ‘‘दिसंबर के पहले सप्ताह में दिल्ली विधानसभा का जो सत्र बुलाया गया. उसकी सूचना दो दिन पहले विधायकों को दी गई. इस सरकार का यह आखिरी सत्र था. जनता के लिए फैसले लेने के बजाय केजरीवाल जी ने लंबा चौड़ा राजनीतिक भाषण दिया. वो जानते हैं कि विधानसभा के अंदर कुछ भी बोलेंगे उसपर कोई कार्रवाई होगी नहीं.’’
आप आदमी पार्टी सरकार में मंत्री रहे और अब कांग्रेस के नेता राजेंद्र पाल गौतम सत्र नहीं चलने के सवाल पर कहते हैं, ‘‘मैं पिछले दस साल से देख रहा हूं कि सरकारें लोकतान्त्रिक तरीके से नहीं चल रही है. चाहे दिल्ली की सरकार हो, दूसरे राज्यों की या केंद्र की. विपक्ष को सवाल करने का मौका नहीं मिलता. सदन के अध्यक्ष खुद से कोई फैसला नहीं करते हैं. जो प्रधानमंत्री या राज्यों के मुख्यमंत्री कहते हैं उसी की अनुरुप फैसला होता है. दिल्ली में भी यही स्थिति है. जब अरविन्द केजरीवाल की इच्छा होती है, वो सत्र बुला लेते हैं.’’
आम आदमी पार्टी के नेताओं का कहना है कि 2020-24 के बीच विधानसभा सत्र कम होने के पीछे कोरोना भी एक कारण है. इसके अलावा हमारे वरिष्ठ नेता इस बीच लगातार जेल जा रहे थे. हमारे दोनों प्रमुख नेता मनीष सिसोदिया और अरविन्द केजरीवाल जेल में थे. उसका असर भी पड़ा.
दूसरे राज्यों की बात करें तो कोरोना काल में भी वहां विधानसभा की कार्यवाही हुई है. 2021 में कोरोना की दूसरी लहर आई तो उस साल दिल्ली में विधानसभा की कार्यवाही सिर्फ आठ दिन चली लेकिन इसी बीच केरल में 61 दिन तक सत्र चला. गौतम भी कहते हैं, ‘‘कोरोना को अगर विधानसभा नहीं चलने देने का कारण ‘आप’ बता रही है तो ये बचकाना है.’’
सत्र ही नहीं बजट पर चर्चा के मामले में दिल्ली की स्थिति औसत ही है. पीआरएस के डाटा के मुताबिक, 2023 तक, 26 राज्यों ने औसतन सात दिनों तक बजट पर चर्चा की. तमिलनाडु ने पूरे बजट पर चर्चा में 19 दिन बिताए, उसके बाद गोवा (17), गुजरात (15) और केरल (13) का स्थान रहा. पांच राज्यों ने एक दिन में अपने बजट पर चर्चा की और उसे पारित किया. इन राज्यों में दिल्ली, पंजाब, उत्तराखंड, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश शामिल थे.
दिल्ली की स्थिति 2024 में भी अलग नहीं रही है. इस बार तो बजट देरी से जारी हुआ. चार मार्च को बजट पास हुआ और उस पर सिर्फ एक दिन पांच मार्च को चर्चा हुई. लेकिन ये कमी सिर्फ चर्चा ही नहीं विधायकों को सवाल पूछने पर भी नजर आती है.
सत्र कम दिन चलने के सवाल पर दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष रामनिवास गोयल कहते हैं, ‘‘सत्र बुलाना और चलाना सरकार का काम होता है मेरा नहीं.’’
विधायकों को प्रश्न करने का मौका ही नहीं मिलता
प्रश्नकाल विधानसभाओं के कामकाज के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है. जिससे विधायकों को प्रशासनिक कामकाज, सरकारी परियोजनाओं और निधियों के बारे में सवाल पूछने का मौका मिलता है.
प्रश्नकाल क्यों ज़रूरी होता है, इस सवाल के जवाब में बिष्ट बताते हैं, ‘‘अधिकारी कई बार विधायकों का कहा नहीं सुनते है. ऐसे में जब हम सवाल लगाते या पूछते हैं तो वो अधिकारियों के पास पहुंचता है. जिसके बाद उस काम को लेकर अधिकारी सक्रिय हो जाते हैं. केजरीवाल सरकार में विधायकों के पास से ये मौका भी खो गया है.’’
ऐसा ही कुछ पूर्व मंत्री गौतम का कहना है. ‘‘कई बार ऐसा होता है कि विभाग कोई काम नहीं कर रहे होते. काम में टालमटोली या कुछ गड़बड़ कर रहे होते हैं. उस मुद्दे पर जब विधायक सवाल पूछते हैं तो हकीकत सामने आती है. विभाग को जवाब देना पड़ता है कि टेंडर कब हुआ? उसे कब तक पूरा हो जाना था? अगर नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ? यह सवाल विधायक अगर व्यक्तिगत रूप से पूछता है तो जवाब नहीं मिलता है. अधिकारी इधर-उधर घुमाते हैं लेकिन विधानसभा में सवाल का जवाब चूंकि मंत्री की तरफ से आना होता है तो वहां से गलत जवाब आने की संभावना कम है. अगर गलत जवाब दिया जाए तो मंत्री की सदस्यता भी जा सकती है.’’
विधानसभा की वेबसाइट पर मौजूद आंकड़ों के विश्लेषण से सामने आया कि शीला दीक्षित के आखिरी दो कार्यकालों में विधायकों को 154 बार लिखित रूप में सवाल पूछने का मौका मिला. 2003-2008 में 74 और 2008-2013 के बीच 80 बार. वहीं, आम आदमी पार्टी सरकार के दोनों कार्यकाल में विधायकों को 53 बार ही सवाल पूछने का मौका मिला. 2015 से 2020 के बीच 44 और 2020 से 2024 के बीच सिर्फ 9 बार ही विधायक सवाल पूछ पाए.
7वीं विधानसभा में विधायकों को 2021 में दो, 2022 में पांच, 2023 में दो बार सवाल पूछने का मौका मिला.
दिल्ली विधानसभा के पूर्व डिप्टी स्पीकर अमरीश गौतम बताते हैं, ‘‘विधानसभा में ज्यादातर आम आदमी पार्टी के विधायक हैं, बावजूद इसके केजरीवाल सरकार सवाल पूछने का मौका नहीं दे रही है. यह शर्मनाक है. विधायक सवाल के जरिए अधिकारियों पर काम पूरा कराने का दबाव बनाते हैं. यह मौका भी उनसे छिन गया, जिसका नतीजा विकास के कामों पर आपको साफ दिखेगा. विधायक काम नहीं करा पा रहे हैं.’’
प्रश्न पूछने का मौका नहीं मिलने के पीछे अचानक से सत्र बुलाना भी कारण है. राजेंद्र पाल गौतम बताते हैं, ‘‘प्रश्न पूछने के लिए विधायकों के कम से कम बारह दिन पहले सत्र की सूचना दी जाती है. वो सवाल भेजते हैं. सवाल अलग-अलग विभागों में जाता है. अधिकारी सवालों का जवाब भेजते हैं लेकिन इस सरकार में देखा गया कि अचानक से सत्र बुला लिया जाता है. दो-तीन दिन पहले विधायकों को इसकी सूचना दी जाती है. मेरा अनुभव है कि इस सरकार में प्रश्नकाल नाम-मात्र के हुए है.’’
आप आदमी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं कि दूसरे कार्यकाल (2020-2024 तक) की शुरुआत में कोरोना था. उसका असर रहा. उसके बाद पार्टी के कई नेता जेल चले गए. पार्टी ही अस्त-व्यस्त हो गई. ऐसे में विधानसभा ही ठीक से नहीं चल पा रही थी. वी.के. सक्सेना के एलजी (उपराज्यपाल) बनने के बाद चीजें और खराब हो गई. अगर विधानसभा नहीं चलेगी तो उसका असर तो सवाल-जवाब पर भी तो पड़ेगा.’’
वहीं, विधानसभा अध्यक्ष रामनिवास गोयल इन आरोपों पर कहते हैं, ‘‘शीला दीक्षित जी के मुकाबले हमारे समय में सवाल पूछने का मौका कम हुआ, इसके पीछे वजह दिल्ली के उपराज्यपाल (एलजी) हैं. उनके समय में एलजी और सरकार के बीच ज़्यादा तनातनी नहीं थी. हमारे समय में यह बढ़ गई. विधायक सवाल लगाते हैं तो कई विभाग जैसे- डीडीए, दिल्ली पुलिस, रेवेन्यू विभाग और सर्विसेज विभाग जवाब ही नहीं देते था. जिसके बाद विधायकों के सवाल लगाने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता था.’’
दिल्ली विधानसभा में नहीं आते अधिकारी
दिल्ली विधानसभा की कार्यवाही में यहां के उप-राज्यपाल और आप सरकार के बीच लगातार चलने वाली नोक-झोंक का भी असर पड़ा है. सत्र के दौरान पहले दिल्ली के अलग-अलग विभागों के अधिकारी विधानसभा में मौजूद होते थे. लेकिन केजरीवाल के दूसरे कार्यकाल के दौरान कभी आने और कभी नहीं आने का सिलसिला शुरू हो गया. वहीं, नरेश कुमार जब से दिल्ली के मुख्य सचिव बने उसके बाद अधिकारियों ने विधानसभा में आना ही बंद कर दिया.
बिष्ट बताते हैं कि पहले विधानसभा के सत्र के दौरान अधिकारी भी वहां मौजूद होते थे. लेकिन आप सरकार के दौरान यह अधिकारी नहीं आते है. होता यह था कि दिल्ली में सुरक्षा का मुद्दा हो तो उस दिन दिल्ली पुलिस के कमिश्नर और दूसरे अधिकारी विधानसभा आते थे, विधायक सवाल पूछते थे. वो सवालों का जवाब देते थे. ऐसे ही दूसरे मुद्दों पर भी होता था. जैसे- अगर राशन बंटवारे में कोई समस्या आ रही है तो खाद्य विभाग के वरिष्ठ अधिकारी को बुलाया जाता था.
राजेंद्र पाल गौतम बताते हैं, ‘‘मैं आम आदमी पार्टी से अलग हो गया इसका मतलब यह नहीं कि उनके खिलाफ ही बोलूंगा. जहां वो सही है, उन्हें सही कहूंगा. दिल्ली में आज कितनी हत्याएं हो रही हैं. रेप हो रहे हैं. पुलिस अधिकारी से कोई पूछने वाला नहीं है. अगर वो विधानसभा में आते तो विधायक उनसे सवाल पूछते. जब से एलजी विनय सक्सेना आए तो वो समानांतर सरकार चलाने लगे. अधिकारियों का ट्रांसफर पोस्टिंग का अधिकारी उनके ही पास है.’’
आम आदमी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता और विधायक कहते हैं, ‘‘2015-20 के कार्यकाल में अधिकारी विधानसभा सत्र में आए. विधायकों ने उनसे सवाल पूछा. दूसरे कार्यकाल में नरेश कुमार मुख्य सचिव बने और उसी बीच वीके सक्सेना उप-राज्यपाल बनकर आए. दोनों ने दिल्ली सरकार को अस्थिर करने में खूब मेहनत की. अधिकारी, विधायक तो छोड़ो, मंत्री की भी बात नहीं सुनते हैं. मीटिंग में आना बंद कर दिया है, जिसका असर जनहित के कामों पर भी पड़ा.’’
आप नेता के आरोप में बीजेपी नेता बिष्ट कहते हैं, ‘‘अधिकारी सरकार की बात नहीं सुनते तो आप ने क्या किया. अधिकारियों का ट्रांसफर पोस्टिंग भले ही एलजी साहब के हाथ में है लेकिन उनके काम की रिपोर्ट तो सरकार ही जारी करती है. जिसके आधार पर उनका प्रमोशन होता है. आप सरकार ने किस अधिकारी के कामों को गलत बताया. हमेशा झगड़ा ही करते रहे.’’
एलजी से रार और सत्रावसान की समाप्ति!
आपने अक्सर सुना होगा कि सत्र का सत्रावसान हो गया यानि सत्र की समाप्ति हुई. दिल्ली विधानसभा में ऐसा नहीं होता. यहां साल भर ही सत्र चलते रहता है.
यहां सत्र को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर लिया जाता है. यानि सरकार जब चाहे विधानसभा का कार्यवाही बुला सकती है.
लोकसभा और दिल्ली विधानसभा के सचिव रहे एसके शर्मा न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘मैंने लोकसभा और दिल्ली विधानसभा दोनों जगहों पर काम किया है लेकिन कभी ऐसा नहीं देखा कि सत्र का सत्रावसान ही न हो. दिल्ली की ही आप सरकार में हमेशा सत्र चलते रहता है.’’
दरअसल, इसके पीछे उप-राज्यपाल और सरकार के बीच चल रही नोंक-झोक, तनातनी और आम आदमी पार्टी सरकार की चालाकी भी शामिल है.
दरअसल, अगर सत्रावसान कर दिया गया तो फिर से सत्र बुलाने के लिए कैबिनेट बैठक होगी और सत्र की जानकारी उप राज्यपाल को भेजी जाएगी. उप-राज्यपाल सत्र को आहूत करेंगे. तो उप राज्यपाल तक न जाना पड़े इसीलिए आम आदमी पार्टी की सरकार सत्रावसान ही नहीं करती.
तो क्या उप राज्यपाल सत्र बुलाने से रोक सकते हैं. इसके जवाब में गोयल बताते हैं, ‘‘वो रोक नहीं सकते. अभी तक तो ऐसा नहीं हुआ है. लेकिन उसे आगे ज़रूर बढ़ा सकते हैं. फाइल को रोककर सत्र में देरी कर सकते हैं.’’
आम आदमी पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘‘यह हमारे हित में होता है. अभी जो उप-राज्यपाल हैं. वो तो समानांतर सरकार चला रहे हैं. उनकी भाषा किसी राजनीतिक दल के नेता वाली है. दिल्ली सरकार के कामों को रोकना उनकी प्राथमिकता में है. ऐसे में विधानसभा की कार्यवाही के लिए भी उनसे इजाजत लेनी पड़े. वो अपने हिसाब से देंगे और नहीं भी दे सकते हैं. उसी से बचने के लिए पार्टी ने यह रास्ता निकाला था."
हालांकि, दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष रामनिवास गोयल का कहना है कि ऐसा हम नियमों के तहत करते हैं. बजट सत्र से पहले उप राज्यपाल से सत्र चलाने के लिए इजाजत ली जाती है, उसके बाद साल भर सत्र चलता रहता है.
हमने उपराज्यपाल वीके सक्सेना को भी इससे जुड़े सवाल भेजे हैं. अगर उनका जवाब आता है तो उसे खबर में जोड़ दिया जाएगा.
रिसर्च में सहयोग-ख्याति पंड्या
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