झारखंड के सरायकेला-खरसावां जिले के एक गुमनाम गांव रसूना में, 17 अक्टूबर की सुबह खेतों में शौच करने के लिए गए 36 वर्षीय खेतिहर मजदूर सामल मुर्मू की हाथियों के साथ मुठभेड़ में मौत हो गई. लेकिन उनकी मौत से किसी को कोई हैरानी नहीं हुई.
गांव के सरपंच मंगल माझी ने घटना के पांच दिन बाद बताया, "हमारे इलाके में ऐसी मौतें आम हैं."
माझी ने कहा, "सामल की मौत के बाद, वन विभाग ने परिवार के लिए तुरंत 50,000 रुपए की मदद भेज दी थी. जब हम उन्हें ये दस्तावेज़ भेज देंगे, तो वे 3.5 लाख रुपए और जारी कर देंगे." वह सवाल करते हैं, "लेकिन क्या, आज के समय में 4 लाख रुपए कोई मायने रखते हैं? कुछ ही दिनों में ये पैसा खत्म हो जाएगा."
माझी के मुताबिक, सरकार को मुआवजे के अलावा ऐसे हमलों के पीड़ितों के परिवारों के लिए पुनर्वास कार्यक्रम भी शुरू करने चाहिए.
गांव का मुखिया होने के नाते, मुर्मू के परिवार को वन विभाग से मुआवजा दिलाने के लिए जरूरी कागजात दाखिल करने में मदद करना माझी की ज़िम्मेदारी है. इन कागजातों में घटना के चश्मदीद गवाह, पोस्टमार्टम रिपोर्ट और परिवार के सदस्यों के पहचान पत्र समेत अन्य कई दस्तावेज़ शामिल होते हैं.
माझी के दफ्तर से करीब 2 किलोमीटर दूर, गांव में मुर्मू का एक कमरे वाला फूस से बना घर, हल्की रोशनी से टिमटिमा रहा था. उनकी पत्नी मुंगली फर्श पर बेसुध बैठी थीं. जब उनसे पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”...“उस सुबह क्या हुआ?”...“तुम्हें अपने पति की मौत के बारे में कैसे पता चला?”
हर सवाल का उनके पास एक ही जवाब था: “मैंने उनसे कहा था कि सूरज निकलने से पहले घर से बाहर नहीं जाना है.”
मुंगली और सामल की सबसे बड़ी बेटी गीता ने बताया, “जब से मेरी मां को हमारे पिता की मौत की खबर मिली है, तब से वह ऐसी ही हैं.” 15 साल की गीता ही अब अपनी मां और दो छोटे भाई-बहनों, 13 वर्षीय मनीषा और 9 वर्षीय सुनीता की देखभाल करती हैं.
मनीषा ने याद करते हुए कहा, “उस दिन, मेरे पिता सुबह करीब 5.30 बजे खेतों के लिए निकले थे. उनके साथ दो और लोग थे. सुबह 9 बजे हमें खबर मिली कि उन तीनों पर हाथी ने हमला कर दिया है और इस हमले में मेरे पिता की मौत हो गई है.” वह आगे कहती हैं, “हमे पता था कि हमारे गांव के पास के जंगल में हाथी घूम रहे हैं. कई दिनों तक परिवार से कोई भी व्यक्ति सूरज निकलने से पहले या शाम के बाद घर से बाहर नहीं निकल रहा था.”
मुर्मू पर हमला करने वाला हाथी 18-20 हाथियों के झुंड का हिस्सा थे, जो सितंबर के आखिरी हफ्ते से रसूना के नजदीक दलमा वन क्षेत्र में डेरा डाले हुए थे.
माझी ने बताया, "ओडिशा से दसियों साल से, हाथी यहां आते रहे हैं और फिर वे दलमा हाथी अभयारण्य की ओर निकल जाते थे." उन्होंने आगे कहा, "पहले वे चांडिल बांध के इलाके से जंगल पार करते थे. लेकिन बांध बनने के बाद, हाथियों को अपना रास्ता बदलना पड़ा. नतीजतन, वे अब आसपास के गांवों से गुजरते हैं, अक्सर फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, घरों को तोड़ देते हैं और यहां तक कि लोगों को मार भी डालते हैं."
स्वर्णरेखा बहुउद्देशीय परियोजना के हिस्से में चांडिल बांध का निर्माण 1982 में शुरू हुआ था. 40 सालों के बाद यह बांध 2022 में पूरा हुआ. रसुना के ज्यादातर लोग इस बात से सहमत थे कि बांध बनने से पहले हाथी गांवों में कम ही गश्त किया करते थे.
पर्यावरण मंत्रालय और राज्य वन विभागों के सहयोग से तैयार की गई 2023 की रिपोर्ट, "एलिफेंट कॉरिडोर ऑफ इंडिया", में वन अधिकारियों की टिप्पणी इन दावों का समर्थन करती नजर आती है. रिपोर्ट के अनुसार, स्वर्णरेखा नहर, आवास का नुकसान, रेलवे लाइन और मानव बस्तियों के बढ़ने के कारण हाथी डालमा-चांडिल गलियारे का कम इस्तेमाल कर रहे हैं।
हमने बांध के निर्माण से पहले और बाद में मानव-पशु संघर्ष में हाथियों और इंसानों को होने वाले नुकसान के मामलों के आंकड़ों के लिए सरायकेला-खरसावां वन विभाग के अधिकारियों से संपर्क किया है. उनकी तरफ से प्रतिक्रिया मिलने पर इस लेख को अपडेट कर दिया जाएगा.
बढ़ता संघर्ष
जुलाई 2024 में संसद में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) की ओर से दिए गए डेटा से संकेत मिलता है कि 2019 और 2024 के बीच झारखंड में मानव-हाथी संघर्ष में 474 लोग मारे गए. यह भारत भर में दूसरी सबसे बड़ी संख्या है. ओडिशा के बाद झारखंड दूसरे स्थान पर है, जिसने इन पांच वर्षों के दौरान 624 मौतें दर्ज की हैं.
इस संघर्ष में सिर्फ इंसानों को ही नुकसान नहीं पहुंचा है. झारखंड में हाथियों की दो अलग-अलग आबादियां हैं - पलामू और सिंहभूम. पर्यावरण मंत्रालय, भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) के साथ मिलकर हर पांच साल में हाथियों की गणना भी करता है. 2017 में जारी हुए हालिया आंकड़ों के अनुसार, झारखंड में 679 हाथी थे. मंत्रालय ने अभी तक 2022 की गणना के आंकड़े जारी नहीं किए हैं.
वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूटीआई) की 2017 की रिपोर्ट ‘राइट टू पैसेज’ के अनुसार, पलामू की आबादी बेतला नेशनल पार्क, पलामू टाइगर रिजर्व और आसपास के इलाकों के लगभग 1,200 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई है.
रिपोर्ट में बताया गया है कि हाल के वर्षों में, हाथी हजारीबाग, रांची, रामगढ़, बोकारो, धनबाद, गिरिडीह, देवघर, दुमका, पाकुड़, गोड्डा और साहिबगंज के नए इलाकों में जाने लगे हैं और इसके लिए वे खंडित वन क्षेत्रों, कृषि भूमि और मानव बस्तियों से होकर गुजरते हैं.
पलामू और सिंहभूम क्षेत्रों से हाथी बिहार और पश्चिम बंगाल की ओर भी जाने लगे हैं. रिपोर्ट के अनुसार, इससे मानव-हाथी संघर्ष, खासकर फसलों को नुकसान पहुंचाने की घटनाएं बढ़ गई हैं. इस तरह के संघर्षों को कम करना क्षेत्र प्रभाग प्रबंधकों के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है.
हाथियों की सुरक्षा के लिए हाथी क्षेत्र वाले राज्यों को वित्तीय और तकनीकी सहायता प्रदान करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने 1991 में प्रोजेक्ट एलीफेंट शुरू किया था. इस प्रोजक्ट के मुख्य उद्देश्यों में हाथियों, उनके आवासों और गलियारों की सुरक्षा, मानव-पशु संघर्ष के मुद्दों का समाधान और कैद में रखे गए हाथियों का कल्याण शामिल है.
प्रोजेक्ट एलीफेंट के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी केंद्रीय पर्यावरण मंत्री की अध्यक्षता वाली संचालन समिति पर है. समिति में सरकार के प्रतिनिधियों के साथ-साथ गैर-सरकारी वन्यजीव विशेषज्ञ और वैज्ञानिक भी शामिल हैं. अन्य समितियों में कैप्टिव एलिफेंट हेल्थकेयर एंड वेलफेयर कमेटी और सेंट्रल प्रोजेक्ट एलीफेंट मॉनिटरिंग कमेटी हैं.
6 मार्च, 2023 को पांचवीं सेंट्रल प्रोजेक्ट एलीफेंट निगरानी समिति की बैठक की कार्रवाई के विवरण से पता चला कि 2022 में हाथियों की आबादी के अनुमान के लिए सैंपल कलेक्शन का काम अभी चल रहा है. द इंडियन एक्सप्रेस को प्राप्त पशुगणना रिपोर्ट की एक अंतरिम प्रति से पता चला है कि झारखंड में 2022-23 में हाथियों की संख्या घटकर 217 रह गई है - जो 2017 की संख्या से 68% कम है.
हाथियों का आतंक
मुर्मू के घर से लगभग 90 किलोमीटर दूर पूर्वी सिंहभूम जिले के मुसाबनी जंगल से एक संकरी सड़क उपरबंदा नामक गांव की ओर जाती है.
इस गांव के लोग नियमित रूप से उन पांच हाथियों की कब्रों पर जाते हैं, जिनकी नवंबर 2023 में उनके खेतों से सटे वन क्षेत्र में 33 किलो वोल्ट के तार के संपर्क में आने से मौत हो गई थी. झुंड में दो बच्चे और तीन बड़े हाथी शामिल थे.
50 वर्षीय शीला देवी ने बताया, "हम सप्ताह में एक या दो बार यहां आते हैं और हाथी देवताओं से अपने परिवारों की रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं." गांव के लोगों का मानना है कि हाथियों की मौत गांव में दुर्भाग्य ला सकती है.
करंट लगने की घटना के समय तत्कालीन प्रभागीय वनाधिकारी ममता प्रियदर्शी ने तुरंत जांच के आदेश जारी किए थे.
उन्होंने बताया, “यह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी. हमने तुरंत जांच के आदेश दिए और कुछ महीने के बाद इसकी रिपोर्ट आ गई. रिपोर्ट के मुताबिक, हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड ने निर्धारित दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया था और उनकी ओर से हुई चूक के कारण यह दुर्घटना हुई थी.”
3 दिसंबर को, हमने इन आरोपों के बारे में प्रतिक्रिया लेने और भविष्य में इसी तरह की दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कंपनी द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में जानने के लिए दिल्ली और कोलकाता में एचसीएल के कॉरपोरेट कार्यालयों के अधिकारियों और झारखंड के सिंहभूम जिले में एचसीएल संयंत्र, इंडियन कॉपर कॉम्प्लेक्स के कंपनी प्रतिनिधियों से संपर्क किया था. उनकी तरफ से जवाब मिलने पर यह रिपोर्ट अपडेट की जाएगी.
इस घटना के बाद, झारखंड के पूर्वी सिंहभूम और गिरिडीह जिलों में हाथी की करंट लगने की इस और इसी तरह की अन्य घटनाओं की जांच के लिए चार सदस्यीय जांच समिति का गठन किया गया था. समिति ने 1 दिसंबर, 2023 को अपनी रिपोर्ट पेश की थी.
रिपोर्ट की एक प्रति हमने भी देखी है. इसमें गांव के चश्मदीद गवाहों के हवाले से बताया गया है कि लाइन में खराबी के बारे में शिकायतें पहले कई बार बिजली विभाग और एचसीएल को भेजी गई थीं. लेकिन, इस समस्या का कभी समाधान नहीं किया गया.
समिति ने एचसीएल के खिलाफ आपराधिक लापरवाही का मामला दर्ज करने की भी सिफारिश की थी. रिपोर्ट कहती है, "घटना की जांच के दौरान हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड की आपराधिक लापरवाही सामने आई है. इसलिए प्राथमिकता के आधार पर आपराधिक कार्रवाई शुरू की जानी चाहिए."
यहां तक कि वन विभाग की जांच में भी खनन मंत्रालय के तहत आने वाले सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम, एचसीएल को घटना के लिए जिम्मेदार पाया गया. लेकिन इस मामले में वन विभाग की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
शीला देवी ने कहा, "वन विभाग ने हमारी खेती की जमीन को जंगल क्षेत्र से अलग करने के लिए एक खाई खोदी थी."
उन्होंने दुर्घटना के दिन को याद करते हुए कहा, "मैं दुर्घटना वाले दिन शाम को यहां आई थी. ऐसा लग रहा था कि खाई से निकाली गई मिट्टी वहां से हटाई नहीं गई थी. कुछ अधिकारियों ने हमसे कहा, शायद रास्ता बनाने के लिए, झुंड में मौजूद हथिनी ने खाई को भरने के लिए मिट्टी हिलाई होगी. और जब वह मिट्टी के ढेर पर खड़ी थी, तब उसकी सूंड तार के संपर्क में आ गई होगी. और क्योंकि झुंड के सदस्य एक-दूसरे के संपर्क में थे, इसलिए वे सभी एक ही समय में करंट लगने से मर गए."
हालांकि, डीएफओ प्रियदर्शिनी ने तर्क दिया कि खाइयां दशकों से वृक्षारोपण का हिस्सा रही हैं. उन्होंने कहा, "मैं यहां वन विभाग का बचाव करने की कोशिश नहीं कर रही हूं. यह एक दुर्घटना थी... एक हादसा था, और इसके कई कारण हो सकते हैं. हो सकता है कि मिट्टी ढीली हो, या झुंड में से किसी एक हाथी का पैर फिसल गया हो. मैं खाई का बचाव नहीं कर रही हूं, लेकिन अकेले यही कारण नहीं था कि ऐसा हुआ हो. हम कह सकते हैं कि कई कारणों से करंट लगने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई थी."
बातचीत में, झारखंड के कई वन अधिकारियों ने स्वीकार किया कि हाथियों को उनके पारंपरिक प्रवास मार्गों से मोड़ने के लिए बिजली की बाड़ और खाइयों का अभी भी काफी ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है.
सेरैकेला के डीएफओ, आलोक वर्मा ने कहा, "2017 में, पश्चिम बंगाल सरकार ने हाथियों को प्रवास करने से रोकने के लिए घाटशिला और चाकुलिया में झारखंड-बंगाल सीमा पर 50 फुट गहरी एक खाई खोदी थी." वह कहते हैं, "राज्य के भीतर वन अधिकारी भी हाथियों को अपने अधिकार क्षेत्र में प्रवेश करने से रोकने के लिए इस तरह के तरीके अपनाते रहे हैं. लेकिन ज्यादातर मामलों में, ये तरीके उल्टे पड़ जाते हैं क्योंकि या तो करंट लगने से मौत हो जाती है या हाथियों को गांवों और राष्ट्रीय राजमार्गों से होकर वैकल्पिक मार्ग लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है." उन्होंने आगे कहा कि इससे हाथियों की अप्राकृतिक मौतें हो रही हैं.
जुलाई 2024 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की ओर से संसद में पेश किए गए आंकड़ों से पता चला है कि भारत में पिछले पांच सालों में अवैध शिकार, जहर, बिजली के झटके और ट्रेन दुर्घटनाओं सहित अप्राकृतिक कारणों से 528 हाथियों की मौत हुई है. अकेले झारखंड में इस दौरान 30 हाथियों की करंट लगने से मौत हो गई.
डर के साये में जिंदगी
मई 2024 में, झारखंड वन विभाग ने 'हमार हाथी' नामक एक मोबाइल-आधारित एप बनाया, जिसका इस्तेमाल राज्य में हाथी गलियारों के पास रहने वाले लोगों को हाथियों की आवाजाही के बारे में जानकारी देने के लिए किया जाता है.
पलामू जिले के डीएफओ, प्रजेश जेना ने कहा, "राज्य भर में वन अधिकारी हमेशा गश्त पर रहते हैं. उनकी जानकारी और पारंपरिक हाथी प्रवास मार्गों के आधार पर एप को अपडेट किया जाता है, और उसी के अनुसार ग्रामीणों को अलर्ट किया जाता है."
लेकिन रांची के बाहरी इलाके ओरमांझी के एक गांव में रहने वाले सुनील महतो और उनके परिवार के लिए यह एप किसी काम का नहीं है. 30 सितंबर की रात को जब वे सो रहे थे, तब एक हाथी ने उनके खेत और घर पर हमला कर दिया.
सुनील ने अपनी दो एकड़ जमीन का दौरा कराते हुए कहा, "हमें किसी एप के बारे में नहीं पता है." उनकी जमीन के बड़े हिस्से और उनके घर की पिछली दीवार को हाथियों ने काफी नुकसान पहुंचाया था. वह आगे कहते हैं, "आमतौर पर, ग्रामीण एक-दूसरे को आस-पास के इलाकों में हाथियों के दिखाई देने के बारे में सूचना दे देते हैं. लेकिन जब हमें पता भी होता है कि आस-पास हाथी हैं, तब भी हम कभी अनुमान नहीं लगा सकते कि वे कब जंगल से निकलकर हमारे घरों और खेतों पर हमला कर देंगे."
सुनील ने कहा, “पर भगवान का शुक्र है, कि किसी को नुकसान नहीं पहुंचा. क्योंकि जिस दिन से हमें पता चला था कि 20 से अधिक हाथियों का झुंड हमारे गांव के पास डेरा डाले हुए हैं, हमने पास के प्राइमरी स्कूल में सोना शुरू कर दिया.”
ओरमांझी गांवों में अपनाए जाने वाले तरीके कई गावों में काफी आम हैं. स्थानीय ग्राम सभा के सदस्य, अरविंद महतो ने कहा, "वन विभाग हाथियों को दूर रखने के लिए मशालें और पटाखे बांटता है. लेकिन रात में हर समय चौकसी रखना संभव नहीं है. इसलिए जब हमें पता चलता है कि हमारे गांव के पास हाथी हैं, तो सभी लोग स्कूल में इकट्ठा होते हैं और तब तक वहीं रहते हैं जब तक हाथी चले नहीं जाते या उन्हें भगाया नहीं जाता."
अरविंद और ग्राम सभा के अन्य सदस्य हाथियों की आवाजाही पर नजर रखने के लिए व्हाट्सएप के जरिए आस-पास के गांवों के ग्राम सभा के सदस्यों के साथ कोऑर्डिनेट करते हैं.
अरविंद ने बताया, "यह एप वन विभाग की गश्ती पार्टियों की जानकारी के आधार पर हमें सचेत करता है. लेकिन कितने वन अधिकारी गश्त करने के लिए आते हैं? उनकी संख्या कम है, और हम उन पर या उनकी जानकारी पर भरोसा नहीं कर सकते हैं. ज्यादातर मामलों में, वन विभाग हमेशा सबसे बाद में प्रतिक्रिया देने वाला पक्ष होता है."
हर साल, जब हाथी ओरमांझी से होकर गुजरते हैं, तो गांव के लोग किसी सार्वजनिक जगहों पर इकट्ठा हो जाते हैं और उनके जाने तक कई दिनों तक साथ रहते हैं. हालांकि इससे इंसानों को होने वाले नुकसान को रोकने में मदद मिलती है, लेकिन वे अपनी फसलों और घरों को नुकसान से नहीं बचा पाते हैं.
अरविंद ने कहा, "कुछ दशक पहले तक, हाथी हमारे धान नहीं खाते थे और न ही गांवों में आते थे. समझ नहीं आ रहा है कि अब वे ऐसा क्यों कर रहे हैं?"
खनन और महुआ
वन्यजीव जीवविज्ञानी और झारखंड राज्य वन्यजीव बोर्ड के पूर्व सदस्य डी.एस. श्रीवास्तव ने कहा कि हाथियों के व्यवहार पैटर्न में बदलाव, जिसमें उनकी खाने की आदतें और आक्रामक स्वभाव शामिल हैं, सीधे हाथियों के आवासों के विनाश से जुड़े हैं.
श्रीवास्तव ने कहा, "इन सभी को आपस में जोड़ना आसान है. हाथी जंगल में बांस खाते थे. लेकिन जैसे ही इंसानों ने जंगल में प्रवेश किया और बांस का इस्तेमाल घर बनाने, भोजन, सिंचाई और अन्य उद्देश्यों के लिए करने लगे, तो हाथियों ने भी मजबूरन अपना आहार बदलकर धान जैसी फसलों की ओर रुख कर लिया."
उन्होंने कहा, "इसी तरह, उनके आवास को भी नष्ट कर दिया गया. पिछले कुछ वर्षों में झारखंड का वन क्षेत्र काफी कम हो गया है. इसने हाथियों को जंगल से बाहर जाने पर मजबूर कर दिया है. खनन कंपनियां नियमों का पालन नहीं करती हैं. खनन के दौरान किए गए गड्ढों को बंद नहीं किया जाता है, इसके चलते हाथी अक्सर उनमें गिर जाते हैं और मर जाते हैं. रेलवे लाइन, राष्ट्रीय राजमार्ग, बांध और अन्य बुनियादी ढांचा परियोजनाएं शायद ही कभी हाथियों के आवास को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं."
पर्यावरण मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त निकाय, भारतीय वन सर्वेक्षण ने अपनी 2001 की रिपोर्ट में बताया कि 1997 में झारखंड के कुल 79,714 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में से 21,692 वर्ग किलोमीटर वन से ढका हुआ था. 2021 तक, वन आवरण बढ़कर 23,721 वर्ग किलोमीटर हो गया. इसमें 2,029 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी हुई.
हालांकि, वन आवरण का जिलावार विश्लेषण एक अलग पैटर्न दिखाता है. "एलिफेंट कॉरिडोर ऑफ इंडिया" नामक 2023 की पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) की रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड में कुल 17 हाथी गलियारे हैं. रिपोर्ट का विश्लेषण करने से पता चलता है कि ये गलियारे मुख्य रूप से तीन जिलों - रांची, पूर्वी सिंहभूम और पश्चिमी सिंहभूम में केंद्रित हैं.
झारखंड वन विभाग की 2001 और 2021 की वन स्थिति रिपोर्ट से पता चलता है कि रांची में वन आवरण 2001 में 1,732 वर्ग किमी से घटकर 2021 में 1,168.78 वर्ग किमी रह गया. जबकि पूर्वी सिंहभूम में 2001 में 885 वर्ग किमी से बढ़कर 2021 में 1080.69 वर्ग किमी हो गया, पश्चिमी सिंहभूम में, रांची की तरह, इस दौरान वन आवरण 3,727 वर्ग किमी से घटकर 3,368.44 वर्ग किमी रह गया.
सेरैकेला के डीएफओ वर्मा ने महुआ के फर्मेंटेशन की प्रक्रिया में बदलाव को भी एक कारण बताया, जिससे हाथी कभी-कभी हिंसक हो जाते हैं. महुआ एक पारंपरिक शराब है जिसका सेवन अधिकतर आदिवासी करते हैं.
वर्मा ने कहा, "कई लोगों ने अब प्रक्रिया को तेज करने के लिए इथेनॉल का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. इथेनॉल की गंध बहुत तेज होती है और यह हाथियों को आकर्षित करती है. ऐसे मामले सामने आए हैं जहां हाथियों ने फर्मेंटेशन के दौरान बड़ी मात्रा में महुआ का सेवन किया और फिर इंसानों पर हमला कर दिया."
विशेषज्ञों ने संघर्ष और राज्य में खनन गतिविधियों में वृद्धि के बीच एक संभावित संबंध की ओर भी इशारा किया.
वन्यजीव जीवविज्ञानी श्रीवास्तव ने कहा, "अगर आप झारखंड का खनन मैप बनाते हैं और उसकी तुलना मानव-हाथी संघर्ष के मामलों के मैप से करते हैं, तो आपको एक संबंध दिखाई देगा."
झारखंड राज्य खनिज विकास निगम लिमिटेड के अनुसार, राज्य में 12 प्रमुख कोयला क्षेत्र हैं जहां टाटा स्टील, तेनुघाट विद्युत निगम लिमिटेड और दामोदर घाटी निगम जैसी सरकारी और निजी कंपनियां खनन गतिविधियां कर रही हैं.
श्रीवास्तव ने कहा, "नियमों के अनुसार, खनन करने वालों को खनन होने के बाद खनन गतिविधियों से प्रभावित जमीन को पुनर्निर्माण करना होता है. उन्हें खुदाई वाले क्षेत्र को भरना होगा. लेकिन कोई भी नियमों का पालन नहीं करता है और आमतौर पर 50-60 फीट गहरे खाली गड्ढे छोड़ दिए जाते हैं. ऐसे मामले सामने आए हैं जहां इन गड्ढों में गिरने के बाद हाथियों की मौत हो गई."
2017 की डब्ल्यूटीआई रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि सेंट्रल भारतीय हाथी आवास, जिसमें झारखंड भी शामिल है, अतिक्रमण, स्थानांतरित खेती और खनन गतिविधियों के कारण सबसे अधिक खंडित और क्षतिग्रस्त क्षेत्रों में से एक है.
रिपोर्ट बताती है कि झारखंड के मुसाबनी और राखा माइंस क्षेत्र में विकास गतिविधियों के कारण मुसाबनी वन रेंज में डुमरिया-कुंडालुका और मुरकांजिया हाथी गलियारे को "क्षतिग्रस्त" कर दिया है. जमशेदपुर के पास स्थित, ये भारत में सबसे पुरानी ब्रिटिश-युग की तांबे की खदानों में से हैं.
राजनीतिक चर्चा से गायब मुद्दा
वन्यजीव विशेषज्ञ और वन अधिकारी इस बात पर सहमत हैं कि मानव-पशु संघर्ष का कोई स्थायी समाधान नहीं है, लेकिन विकास को लेकर सावधानीपूर्वक अपनाया गया नजरिया ही आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका है.
श्रीवास्तव ने कहा, "हमें उनके आवास उन्हें लौटाने होंगे. यह सुनिश्चित करने का यही एकमात्र तरीका है कि कोई हताहत न हो - चाहे इंसान हो या हाथी. स्थानीय लोगों को नीति निर्माण में शामिल करना होगा. 'प्रोजेक्ट एलीफेंट' के नाम पर जो कुछ भी किया जा रहा है, वह सिर्फ दिखावा है. वन अधिकारी अपनी मनमर्जी से हाथियों के मार्ग तय करते हैं और विकास परियोजनाओं को मंजूरी देते हैं. इसे रोकना होगा."
डीएफओ वर्मा ने पैसे की कमी का संकेत देते हुए कहा, "हमें मौजूदा संकट से निपटने के लिए जमीन पर और गश्ती दल, अधिक कर्मचारी और बेहतर तकनीक की आवश्यकता है."
हमने इस पर टिप्पणी के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय और प्रोजेक्ट एलीफेंट के प्रभारी अधिकारियों से संपर्क किया. उनकी तरफ से जवाब मिलने पर इस लेख को अपडेट कर दिया जाएगा.
यह समस्या हाल ही में चुनाव वाले राज्य में किसी भी पार्टी के राजनीतिक रडार पर नहीं है.
रसूना के मंगल माझी ने चुटकी लेते हुए कहा, "मुझे बिल्कुल भी हैरानी नहीं है. ये लोगों के असली मुद्दे हैं. राजनेता इनके बारे में क्यों बात करेंगे?" ओरमांझी में अरविंद महतो की भी कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया थी. उन्होंने कहा, “पिछले पांच सालों में किसी भी राजनेता ने हमारे गांव में कदम नहीं रखा है. उन्हें कैसे पता चलेगा कि हम किस परेशानी से जूझ रहे हैं? ईमानदारी से कहूं, तो उन्हें इससे दूर रहना चाहिए. यह हमारा जंगल है. हमें इसे संभालने दो.”
उधर रसूना में, मुर्मू का परिवार मुआवजे की बचे हुए 3.5 लाख रुपए का इंतजार कर रहा है. मुसाबनी की शीला देवी ने गांव की अन्य महिलाओं के साथ हाथी देवताओं के सामने प्रार्थना करने के लिए हर दूसरे दिन हाथियों की कब्र पर जाने की कसम खाई है. और ओरमांझी का महतो परिवार एक बार फिर से हाथियों के हमले में टूटे अपने घर को बनाने के लिए कमर कसकर खड़े हो गए हैं.
यह रिपोर्ट इंडियास्पेंड की अनुमति से पुनः प्रकाशित की गई है, जो एक डेटा-संचालित, जनहित पत्रकारिता गैर-लाभकारी संस्था है. इसे शैली और स्पष्टता के लिए थोड़ा संपादित किया गया है.
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