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अवधेश कुमार

रिपोर्टर की डायरी: वो संभल जो कैमरे पर नहीं दिखा

मस्जिद में मंदिर तलाशने की चल रही ‘देशव्यापी योजना’ की जद में उत्तर प्रदेश का संभल जिला भी आ गया है. यहां इन दिनों हर रोज ही खुदाई चल रही है और कभी मंदिर तो कभी बावड़ी निकल रही है. इसकी शुरुआत शाही जामा मस्जिद में 19 नवंबर को हुए सर्वे से हुई.

लंबित मामलों से दबे स्थानीय न्यायालय में 19 नवंबर को एक याचिका दायर हुई. जज साहब ने उसी दिन सुनवाई की और सर्वे का आदेश दे दिया. जिला प्रशासन पहले से तैयार बैठा था. उसी दिन ही सर्वे के लिए टीम भी पहुंच गई और सर्वे भी हो गया.

इसके पांच दिन बाद 24 नवंबर सर्वे टीम दोबारा पहुंचीं. इस दिन यहां भारी पुलिसबल पहले से मौजूद था. देखते-देखते यहां पुलिस और भीड़ आमने-सामने आ गई. जिसमें पांच लोगों की मौत हुई. वहीं सैकड़ों लोग घायल हुए, जिसमें पुलिस वाले भी शामिल थे. 

ये रविवार का दिन था. लेकिन रिपोर्टर के लिए क्या ही रविवार और क्या ही सोमवार. हालांकि, अभी तक दफ्तर के किसी भी रिपोर्टर को संभल जाने का सिग्नल मिला नहीं था. रिपोर्टर साथी ग्रुप में संभल हिंसा से संबंधित कुछ न कुछ भेजकर संपादकों को अलर्ट कर रहे थे.

खैर, सोमवार की सुबह जब उठा तो तब तक संपादक महोदय अतुल चौरसिया की दो-तीन कॉल, मिस कॉल में बदल चुकी थीं. मैंने बैक कॉल किया तो बोले सब छोड़के तुरंत संभल निकलो. फोन रखते-रखते अवाज आई कि स्टोरी जल्दी चाहिए चार दिन नहीं लगाने हैं. बाथरूम से ही गाड़ी के लिए मेल कर, जल्दी-जल्दी सोशल मीडिया और अन्य 2-4 खबरों पर नजर मारी तो देखा कि संभल में मामला ज्यादा बढ़ चुका था. इतना कि सोशल मीडिया पर सिर्फ संभल ही तैर रहा था. 

फोन रखकर नहाने गया तो इतने में दो मिस कॉल दूसरे संपादक जी रमन कृपाल की हो चुकी थीं. बैक कॉल मैंने कुछ देर बाद किया ताकि बता सकूं कि हां, निकल गया हूं, रास्ते में हूं. अवधेश सुनो... जैसे तुमने बहराइच से स्टोरी की थी हमें वैसी ही स्टोरी चाहिए. सबसे बात करके, अच्छे से स्टोरी करना. सर द्वारा बताई गईं कुछ जरूरी बातों के बीच मैंने, एक सैनिक की भूमिका निभाते हुए कहा, यस सर, ओके सर…

दिल्ली से संभल पहुंचने तक तीन टोल प्लाजा पार करने पड़े, तीनों पर पहली बार इतनी पुलिस देख रहा था. पहली बार इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मेरा घर जिला अमरोहा में ही है तो यह रास्ता मेरे लिए नया नहीं था. इसी से अंदाजा हो गया था कि संभल में मामला कितना बढ़ गया है. जैसे- जैसे संभल नजदीक आ रहा था. वैसे-वैसे पुलिस की संख्या बढ़ती जा रही थी. कई चेकिंगों के बीच से मौके पर पहुंचा तो स्थिति कुछ ऐसी थी कि सूनी सड़कों और पसरे सन्नाटे के बीच सिर्फ पुलिसिया गाड़ी ही नजर आ रही थीं. माहौल एकदम कर्फ्यू जैसा था. 

संभल पहुंचते ही इंटरनेट बंद हो गया था. अब संभल समेत देश दुनिया में क्या चल रहा है, इसकी जानकारी इंटरनेट के माध्यम से मिलना बंद हो गई थी.

शहर में एंट्री करने के दौरान मुहाने पर ही भारी बैरिकेडिंग के बीच सैकड़ों पुलिसकर्मी तैनात थे. बैरिकेडिंग पार करते ही बदरंग सड़क पर सामने से आती एक दर्जन से अधिक गाड़ियों के काफिले के एक साथ बजते सायरनों की आवाज सुनकर कुछ देर के लिए ठहर सा गया. रिकॉर्डिंग के लिए कैमरा ऑन करने में एक बार तो लगा कि उंगलियां ऑन का बटन दबाने से थोड़ा हिचकिचा रही थी. खैर शुरुआत ऐसी हुई तो फिर बाद में दिमाग और उंगलियों ने और ज्यादा चुस्ती से काम किया. 

मेरा सबसे पहला मकसद उस मस्जिद को देख लेना था, जिसने देशभर का ध्यान एक बार फिर अपनी ओर खींचा. इस मस्जिद के लिए कई रास्ते जाते हैं. इन रास्तों पर पड़ने वाले घरों से लोग झांक रहे थे लेकिन जैसे ही कैमरा या उनकी ओर देखों तो वे दरवाजा बंद कर लेते. छिपने की कोशिश करते. 

मस्जिद के मेन गेट के ठीक सामने वाले घरों में कतार से हिंदू आबादी रहती है. इन ऊंची इमारतों की पहली, दूसरी मंजिलों से कुछ महिलाएं और बच्चियां झांक रही थी. आवाज देने पर खिड़कियां बंद कर भाग जातीं. मैंने एक महिला को बहन बोलकर बात करने की गुजारिश की. खिड़की बंद करते हुए आवाज आई नहीं. उसी की बगल में एक दूसरी खिड़की से झांक रही लड़की पहले तो खिड़की बंद कर भाग गई लेकिन बाद में आई तो बात करने के लिए राजी हो गई. उसने इशारों से कहा, भैया इधर से पुलिस ने सभी के दरवाजे बंद करवा रखे हैं, आप गली वाले दूसरे रास्ते से आ जाइए. रास्ता घूमकर मैं उस घर पहुंचा तो वहां 65 वर्षीय बुजुर्ग महिला, उनकी बहू, बेटियां और उनके कुछ रिश्तेदारों की बेटियां बैठी थीं.

यहां विस्तार से अच्छी लंबी बातचीत रिकॉर्ड हुई, लेकिन अफसोस की इस बातचीत को कुछ देर बाद ही डिलीट करना पड़ा. दरअसल, अचानक घर पर आया इस परिवार का बड़ा बेटा सारा डाटा डिलीट करने की गुजारिश करने लगा. उसके लगातार अनुरोध के कारण मैंने फोन से सारा डेटा डिलीट कर दिया. उनका कहना था, हमारे लिए मुश्किल हो जाएगी. आप चले जाएंगे लेकिन हमें फिर से सभी हिंदू मुस्लिमों को मिलकर यहीं रहना है. यहां ये बताना जरूरी है कि ये परिवार मुझसे मेरा नाम जानने के बाद ही बात करने के लिए तैयार हुआ था. 

हालांकि, यह तो मेरा नाम पूछने की शुरुआतभर थी. अपने दस साल के पत्रकारिता करियर में पहली बार था. जब मुझे इनती बार अपना खुद का नाम लेना पड़ा.

अब मेरा अगला टारगेट पांचों मृतकों के परिवारों से मिलना और उनका दर्द जानना था. जब मैं पीड़ित परिवारों के पास पहुंचा तब उन्होंने मेरा नाम पूछा. वो नाम पूछने के बाद ही बात करने को तैयार होते थे. ज्यादातर लोगों ने बात करने से मना कर दिया क्योंकि अवधेश यानी मेरे नाम में मेरा धर्म छिपा था और उन पीड़ितों को मेरे नाम की वजह से मेरे ऊपर यकीन नहीं था. जिन्होंने बात की उनमें कई को मुझे अपना काम दिखाकर विश्वास में लेना पड़ा.

एक जगह तो परिवार ने बात करने से मना कर दिया, मैं सिर्फ कुछ फुटेज लेकर वापस लौट रहा था. गली खत्म होने से पहले ही उधर से आ रहे एक शख्स ने न्यूज़लॉन्ड्री का माइक देख मुझे वापस ले जाकर परिवार से बात कराई.  

बतौर रिपोर्टर यह मेरे लिए बहुत चौंकाने और शर्मिदा करने वाली बात थी. मैंने तमाम जगहों से रिपोर्टिंग की लेकिन पहली बार मुझे ऐसे लोग मिले जो पीड़ित थे, लेकिन धर्म के आधार पर एक पत्रकार से बात नहीं करना चाहते थे. 

अपना दर्द बताने के लिए भी वो मजहब तलाश रहे थे. 

एक महिला जिनकी 15 साल की बेटी को पुलिस पूछताछ के लिए ले गई, उसने इसकी वजह बताई और मेरा सिर शर्म से झुक गया. उसने कहा, “हमारे घर तोड़े गए हैं, पुलिस ने हमारे घर में घुसकर सब तहस-नहस कर दिया है.” ये कह कर वो घर में टूटा हुआ सामान दिखाने लगीं. इसके बाद उन्होंने आगे बताया- “हमें पीटा गया है, हमारे घरों में घायल पड़े हैं, और दिल्ली का मीडिया हमारे घर में ही पत्थर ढूंढ़ रहा है. ऐसे मीडिया से हमें बात नहीं करनी है.”

यह उस मीडिया की एक दुखद और शर्मनाक तस्वीर है. जिस मीडिया से लोग उम्मीद करते हैं कि वह कमजोर, गरीब का सच सरकारों के सामने रखेगा और जवाबदेही तय करेगा. उल्टे मीडिया उनके लिए मुसीबत का जरिया बन गया है. मैंने महसूस किया कि मीडिया की विश्वसनीयता पूरी तरह से रसातल में चली गई है.

यही नहीं एक घर में एक पिता ने कहा कि हमें आपसे बात नहीं करनी, मेरा बेटा मरा है, मैं सब्र कर लूंगा, कोने में जाकर रो लूंगा लेकिन मुझे किसी को अपना दर्द नहीं बताना है. आप जाइए यहां से. 

इस घर से निकलने वाली गली के बाहर खड़े कुछ युवाओं ने मुझे बताया कि उनकी पहली नाराजगी पुलिस प्रसाशन और दूसरी मीडिया के रवैये से है. 

पुलिस से इसलिए क्योंकि वो इन्हें धमका रहे हैं. किसी से भी बात करने के लिए मना कर रहे हैं. दवाब बना रहे हैं कि ये किसी को नहीं बताना है कि हिंसा में हुई मौत पुलिस की गोली से हुई है. परिवार से लिखकर मांग रहे हैं. दूसरा हमारे घरों के बाहर पड़े पत्थरों को दिखाकर दिल्ली का मीडिया हमें पत्थरबाज कह रहा है. 

25 नवंबर का दिन संभल को भांपने और इसी कशमाकश में गुजर गया कि कोई बात कर ले. इसी रात करीब 8 बजे मृतक अयान का शव पुलिस की निगरानी में उनके घर पहुंचा. पुलिस ने अंतिम संस्कार के कार्यों के लिए सिर्फ दस मिनट दिए थे. देर होने पर बार-बार बोला जा रहा था कि जल्दी कीजिए. रात दस बजे तक अयान के शव को कब्रिस्तान में दफनाया गया. कब्रिस्तान के अंदर परिजन और शहर के लोग तो बाहर भारी पुलिस तैनात थी. ये दृश्य मेरे लिए काफी हैरान करने वाले थे, किसी का अंतिम संस्कार भी परिवार नहीं बल्कि जैसे पुलिस चाह रही है वैसे हो रहा है. मुझे इस दौरान उस हाथरस पीड़िता की भी याद आई जिसे यूपी पुलिस ने आधी रात को खुद ही जलाकर अंतिम संस्कार कर दिया था.  

एक दिन लगभग खत्म हो चुका था, मेरे पास रिपोर्ट के नाम पर 10 फीसदी भी काम नहीं हुआ था. रात करीब 10 बजे अतुल सर ने हाल चाल लेने के बाद कहा कि ये रिपोर्ट कल सवेरे जल्दी चाहिए. तब मैं कब्रिस्तान में था.

लोग बात नहीं कर रहे थे, काफी मुश्किल हो रहा था. दिल्ली से आए मीडिया साथी पहले ही इग्नोर कर चुके थे. वे लॉबिस्ट की तरह काम कर रहे थे कि तुम मेरी बात कराओ मैं तुम्हारी कराता हूं.

देर रात खाना खाने और फिर सोने का ख्याल आया. शहर के चक्कर काटने के बाद एक होटल के बाहर खूब देवी देवताओं की तस्वीरे लगी थीं, शुद्ध शाकाहारी नहीं लिखा था लेकिन वो फील अपने से ही आ गया था. लेकिन वहां हमें नॉनवेज खाने का मौका मिला. 

दिनभर की थकान के बाद अगला मिशन कोई होटल ढूंढकर अच्छी नींद लेना था. संभल के ज्यादातर होटलों पर पुलिस ने पहले ही कब्जा कर लिया था. औसत ये था कि अगर किसी होटल में 13 कमरे हैं तो 11 पुलिसकर्मियों के लिए बुक थे.

मेरी तरह मीडिया के कुछ अन्य साथी भी होटल की तलाश में भटक रहे थे. उनमें कोई मुरादाबाद, कोई चंदौसी तो कोई अमरोहा सोने के लिए निकल गया. मैंने सोच लिया था कि मैं गाड़ी में सो जाऊंगा लेकिन स्टोरी पूरी होने से पहले ये शहर नहीं छोड़ूंगा. 

फाइनली रात के करीब 2 बजे एक होटल मिल ही गया. जो मिला वो किसी ने बुक किया था लेकिन लौटा नहीं. भला हो उस शख्स का जो इस होटल से कहीं अच्छी व्यवस्था में सो गया होगा, और जिसके चलते हमें इस होटल में सोने का मौका मिला. दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह भी थी कि कैश नहीं था. जो था लगभग खत्म हो चुका था. इंटरनेट नहीं होने के चलते यूपीआई संभव नहीं था. ड्राइवर, मैंने और कुछ इधर-उधर से करके बस किसी तरह बात बन जा रही थी.

सवेरे सात बजे मैं होटल छोड़ चुका था. ग्राउंड पर लोगों से मिलने जुलने का सिलसिला शुरू हो चुका था. दिक्कत 25 तारीख वाली ही थी लोग बात नहीं कर रहे थे. इसके बाद मैंने लोगों को अपना काम दिखाकर उन्हें विश्वास में लेकर बात करने की कोशिश की. ये एक रास्ता मुझे स्टोरी कंपलीट करने की मंजिल की ओर ले जा रहा था.  

26 नवंबर को अतुल सर ने करीब दस बजे सवेरे फिर से फोन कर दिया कि क्या स्टेटस है. स्टोरी आज ही शाम तक चाहिए. मैंने, सामने आ रही परेशानियों का जिक्र करते हुए आखिर में दबी आवाज में सिर्फ इतना ही कहा, ठीक है सर.  

मैंने अपने साथी गाड़ी चालक से कहा कि सुनो भाई, हम स्पेशिली कहीं खाना खाने नहीं जाएंगे. आपको जहां कहीं भी लगे कि टाइम है खा सकता हूं तो खा लेना. हुआ भी ऐसा ही, मैं काम में व्यस्त था लोगों के घरों में जाकर पीड़ितों का दर्द सुन रहा था इस बीच इन्होंने खाना खा लिया था. मेरा भोजन रात को करीब दो बजे संभल से लौटते हुए हापुड़ में पड़ने वाले एक ढाबे पर हुआ. 

26 नवंबर दोपहर करीब दो बजे…

संभल से करीब 22 किलोमीटर दूर कैला देवी मंदिर के मुख्य बरामदे में महंत ऋषिराज गिरी बैठे थे. बीजेपी नेताओं समेत उनके समर्थकों का उनसे मिलने के लिए तांता लगा था. जब हम पहुंचे तो स्थानीय थाने के एसएचओ महंत से आशीर्वाद लेकर बाहर निकल रहे थे. बाबा की सुरक्षा में दो सिपाही लगा दिए गए थे. इन दोनों की ड्यूटी है कि कोई मुस्लिम व्यक्ति खासतौर मुस्लिम पत्रकार अंदर न जाने पाए. इन दोनों सुरक्षा कर्मियों से काफी गुजारिश के बाद मेरी मुलाकात महंत से हुई. एक गार्ड ने मेरा विजिटिंग कार्ड देखकर कहा, देखना इसलिए पड़ रहा है कि कोई गलत आदमी अंदर एट्री न कर जाए. उन्होंने साफ कहा कि किसी भी मुसलमान पत्रकार को अंदर नहीं जाने देना है. 

महंत से बात करने के बाद मैं संभल के इतिहास पर ‘तारीख़ ए संभल’ किताब लिखने वाले मौलाना मोईद से मिलना चाहता था, फोन किया तो उन्होंने मिलने से मना कर दिया. मैं फिर भी पता करके उनके घर पहुंच गया.

उनके बैठने के ठिकाने पर बनी लाइब्रेरी से एक किताब उठते हुए मैंने कहा कि आप जैसे लोग ही जब बोलना बंद कर देंगे तो हमारा क्या होगा. वो हल्का सा मुस्कुराए… ऐसा नहीं है. 

मैंने कहा, इस दौर में जब बोलने की सबसे ज्यादा जरूरत है और आप जैसे लोग चुप्पी साध लेंगे तो कैसे चलेगा? मैंने कहा, सर.. आप बात मत कीजिए, मैं ऐसे ही चला जाऊंगा, लेकिन मैं आपसे सिर्फ ये कहने आया था कि अगर आप सही हैं तो अभी आप जैसे लोगों की सबसे ज्यादा जरूरत है. थोड़ा लंबी चली इस बातचीत के बाद वे बात करने के लिए तैयार हो गए. ये सब बताना इसलिए जरूरी है कि संभल में इस वक्त ज्यादातर लोग बात करने से डर रहे हैं. जो मीडिया में बयान दे रहे हैं, पुलिस उन्हें उठा रही है. टारगेट कर रही है. जबरन थाने ले जाकर सवाल कर रही है. इसका परिणाम है कि लोग बात नहीं करना चाहते हैं. 

इसी कड़ी में पुलिस ने शहर के कई जिम्मेदार लोगों की एक मीटिंग भी बुलाई थी. देर शाम तक डीएम आवास पर चली इस मीटिंग में डीएम, एसपी समेत कई अन्य आलाअधिकारी भी शामिल रहे. मीटिंग में शाही जामा मस्जिद के सदर जफर अली समेत कई जिम्मेदार मुस्लिम लोगों को हिदायत दी गई थी कि वे इस मीटिंग समेत अन्य कोई भी बात अब मीडिया से नहीं करेंगे. डीएम ऑफिस के सामने दिल्ली मीडिया समेत कुछ स्थानीय पत्रकारों के कैमरे नजर जमाए थे कि लोग बाहर आएंगे तो बात होगी. कौन-कौन शामिल हुआ? क्या बातचीत हुई? उनको दिखाया जाए. 

ऐसा होता इससे पहले ही संभल के एसपी ने गेम कर दिया. आईपीएस अधिकारी कृष्ण कुमार बिश्नोई बाहर आए सभी मीडिया बंधुओं को बुलाया और कहा कि आप सब लोग एसपी आवास पहुंचे मैं और डीएम साहेब वहां आपसे बातचीत करेंगे.

फिर क्या था एसपी साहेब की बात पत्रकारों की सर आंखों पर. इस काफिले में शामिल कुछ गिने चुने पत्रकार एसपी कार्यालय पहुंच गए. इस गेम को मैं भाप गया था मैं कुछ देर रुका. मैंने देखा कि जैसे ही पत्रकार वहां से गए सभी नेताओं को एक-एक कर निकालना शुरू कर दिया. 

मैंने डीएम ऑफिस से बाहर निकल रहे मस्जिद के सदर जफर अली और एक अन्य को रोककर उनसे बात करने की कोशिश की. उन्होंने मुझसे बात करने से साफ इनकार कर दिया. कहा कि मीडिया से बात करने से मना किया गया है. उनके साथ मौजूद एक वकील ने मेरा नंबर लिया और कहा कि एक घंटे बाद मुझे कॉल करना बताता हूं, कहां आना है. हम यहां कोई बात नहीं कर सकते हैं. मना किया गया है. कुछ देर में ही एसपी और डीएम अपनी-अपनी गाड़ियों से एसपी आवास निकल गए. मैं भी पहुंच गया. मैंने जो डीएम एसपी से सवाल किए वो आपने मेरी रिपोर्ट में देखे ही होंगे. नहीं तो फिर से सुन लीजिए.

इस प्रेस कांफ्रेंस के बाद मैं बाहर आ गया. हमारे चालक सहयोगी ने बताया कि एसपी वहां मौजूद अधिकारियों से पूछ रहे थे कि ये लड़का कौन है.

इस कवरेज से जुड़ी अगर ये कहानी नहीं जोड़ूंगा तो शायद मेरा ये अनुभव अधूरा सा रह जाएगा. दरअसल, मुझे पता चला कि जामा मस्जिद के सदर जफर अली मस्जिद में ही मिलेंगे. जफर अली के दो परिचित मुझे मुलाकात के लिए मस्जिद ले जा रहे थे. हम तीनों मस्जिद की सीढ़ियां चढ़ रहे थे, मैं आखिरी सीढ़ी पर था. तभी पीछे से एक पुलिसकर्मी ने आवाज देकर मुझे रोक दिया. मैं वापस नीचे आ गया. पुलिस वाले ने कहा तुम चोरी छिपे मस्जिद में घुस रहे थे. पुलिस वाला देख रहा था कि मेरे गले में मेरा प्रेस कार्ड और जैकेट में रखा न्यूज़लॉन्ड्री का लाल माइक पड़ा है. थोड़ी ही देर में कई पुलिसकर्मियों ने मिलकर वहां ऐसा माहौल बना दिया मानों मैं कोई अपराधी हूं जो चोरी छिपे मस्जिद में घुस रहा था. इसने मुझे अंदर से डरा दिया क्योंकि पुलिसिया बर्ताव की कहानियां दो दिनों में मुझे संभल के हर निवासी ने सुनाई थी.  

कई पुलिस अधिकारियों और पुलिसकर्मियों के बीच मैं घिरा था. इनकी संख्या करीब 50 होगी. इस दौरान शोरगुल होने लगा, जिसे सुनकर मस्जिद के पास रहने वाले संभल के एक मशहूर वकील आए. उनसे मैं सुबह में मिला था. उन्होंने मुझे पहचान लिया. उनके कहने पर पुलिस ने आईकार्ड और मेरी कुछ तस्वीरें लेने के बाद मुझे छोड़ दिया. ये मेरे लिए काफी हैरान करने वाला था क्योंकि यह सब तब हुआ जब मेरे साथ मस्जिद इंतजामिया कमेटी के दो लोग मौजूद थे. 

जफर अली से हमारी मुलाकात संभल के ही किसी अन्य इलाके में देर रात हुई. इसके बाद मैं दिल्ली लौट आया. रात को करीब दो बजे बहुत ही तसल्ली से मैंने और मेरे सहयोगी ने हापुड़ स्थित ढाबे पर खाना खाया.

35 मिनट कुछ सेकेंड की इस स्टोरी के पब्लिश होने के बाद मुझे फोन और मैसेज आने लगे. संभल से ही तमाम फोन आने लगे. मेरी स्टोरी का मुझे ही लिंक भेजकर कहा कि आपने ये स्टोरी दिखाकर संभल के साथ न्याय किया है. रील चलने लगीं, स्टोरी के कुछ हिस्सों को काट कर सोशल मीडिया पर साझा किया गया.

अखिलेश यादव व कांग्रेस के तमाम नेताओं ने मेरी स्टोरी को शेयर किया. दिल्ली और स्थानीय पत्रकारों ने मुझे फोन कर मेरी कहानी के किरदारों के नंबर मांगे. इसके बाद तमाम दिल्ली और स्थानीय मीडिया ने मेरी स्टोरी का फॉलोअप किया.

आज की बात करूं तो संभल से मुझे रोजाना कई फोन आते हैं. सबकी अपनी समस्याएं हैं. किसी के बेटे को पुलिस ने उठा लिया है तो कोई किसी को पुलिस कार्रवाई करने की धमकी दे रही है. कई महिलाओं ने मुझे रोकर फोन किया कि घर की स्थिति ठीक नहीं है बेटा अकेला कमाने वाला था उसे पुलिस ले गई. हम कहां जाएं. कल ही किसी का फोन आया कि हमारे मोहल्ले से तीन लड़कों को पुलिस उठाकर ले गए. उन्हें बेरहमी से पीटा है. 

शायद इन लोगों को लगता है कि मैं खबर लिखूंगा तो सब ठीक हो जाएगा. ये लोग हर कॉल पर मुझसे कुछ उम्मीद करते हैं. वे कहते हैं कि सिर्फ आपने ही सच दिखाया है बाकी सबने तो हमारे घरों में पत्थर ढूंढे हैं. आप हमारे बारे में कुछ लिखिए. 

बता दूं कि मेरी स्टोरी के बाद ही अस्पाताल में भर्ती हसन और अजीम पर 24 घंटे का पहरा लग गया था. पहरा ऐसा कि पैर में बेड़ियां और 4-5 पुलिसकर्मी हमेशा निगरानी में थे. हिंसा में गोली लगने के बाद इनका पहले संभल फिर मुरादाबाद में इलाज चल रहा था. वहीं से पुलिस ने इन्हें जेल भेज दिया. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए इन दोनों युवाओं ने बताया था कि पुलिस झूठी गवाही के लिए इन पर दबाव बना रही थी.

पति की मौत के बाद चार महीने के लिए इद्दत में बैठी हसन की मां ने दो दिन पहले ही फोन करके कहा कि जहां तो मेरे बेटे की बाजू का ऑपरेशन होना था, डॉक्टर ने सभी कागज भी पूरे कर लिए थे, बेटी से ऑपरेशन के लिए कागजों पर अंगूठा भी ले लिया था फिर क्यों मेरे बेटे को बिना ऑपरेशन के ही जेल भेज दिया. उसकी बाजू खराब हो गई है, कहकर रोनने लगती हैं.

टेक्स्ट रिपोर्ट आप यहां पढ़ सकते हैं.

आप यकीन नहीं करेंगे कई बार ऐसी कहानियां करते हुए मन विचलित हो जाता है. गुस्सा भी आता है. लेकिन सामने वाले की कहानियां देख सुनकर लगता है कि हमारी परेशानियां तो कुछ भी नहीं हैं. अच्छा लगता है जब इनका दर्द किसी हमारे द्वारा कही गई कहानी के जरिए लोगों को पता चलता है और फिर इन्हें मदद पहुंच जाती है. आरोपी को सजा मिल जाती है. बतौर पत्रकार ये मेरा काम है, अपने समय को लिपिबद्ध और ईमानदारी से करना है. 

2024 ने मुझे कई नई कहानियां दीं. सांप्रदायिक दंगे, दलितों पर अत्याचार, पेपर लीक, स्थानीय यूट्यूबर्स की कमाई, मीडिया की कहानियां, अपराध पर खोजी पत्रकारिता और तमाम इंटरव्यूज. जो ग्राउंड पर दिखा उसकी पड़ताल कर अपने पाठकों तो उसी रूप में परोस दिया. बांटने-कांटने से ऊपर उठकर समाज को बेहतर बनाने की और प्रयास किया. 

मैंने जो भी आपसे ऊपर जिक्र किया ऐसा करके मैंने कोई नया काम नहीं किया है. कोई तीर नहीं मारा है. बस फर्क इतना है कि काम ईमानदारी से किया है. उम्मीद है 2025 में भी कुछ अच्छी ख़बरें और कहानियां अपने पाठकों के लिए ला सकूंगा, आप सभी को मेरी ओर से 2025 की शुभकामनाएं. अपना अपने परिवार का ख्याल रखिए.

मैं एक अदना सा पत्रकार

आपका अवधेश कुमार

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