देश के प्रतिष्ठित संस्थान जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में कंप्यूटर साइंस विभाग के प्रोफेसर राजीव कुमार के खिलाफ फरवरी 2020 से एक जांच चल रही है और इस कारण विश्वविद्यालय ने प्रोफेसर की विजिलेंस क्लीयरेंस रोकी हुई है. राष्ट्रपति, शिक्षा मंत्रालय और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सेंट्रल विजिलेंस कमीशन या सीवीसी) को लिखे पत्र में प्रोफेसर कुमार ने शिकायत की है कि यह जांच ‘पक्षपातपूर्ण और दुर्भावना से प्रेरित’ है और इस कारण उन्हें मानसिक प्रताड़ना और कार्य में बाधा झेलने के साथ-साथ उच्च पदों पर नियुक्ति के अवसरों से वंचित रहना पड़ा है.
क्या है मामला?
प्रोफेसर राजीव कुमार जेएनयू के स्कूल ऑफ कम्प्यूटर एंड सिस्टम्स साइंसेस (एससीएसएस) विभाग में पिछले आठ साल से कार्यरत हैं. जेएनयू में नियुक्ति से पहले वे आईआईटी खड़गपुर, आईआईटी कानपुर, बीआईटीएस पिलानी में प्रोफेसर रह चुके हैं.
जनवरी 2020 में जेएनयू में एक मीटिंग के दौरान दो लोगों ने कुमार पर ‘दुर्व्यवहार’ (बैठक के दौरान टीका-टिप्पणी करने, बाधा डालने और ज़ोर से बोलने) का आरोप लगाया हालांकि बाद में उनमें से एक शिकायतकर्ता ने अपनी शिकायत वापस ले ली. विजिलेंस मैन्युअल के हिसाब से प्रोफेसर के खिलाफ बिठाई जांच तीन महीने में पूरी हो जानी चाहिए, लेकिन फरवरी 2020 में शुरू हुई यह जांच आज तक जारी है. अब तक एक के बाद एक तीन जांच कमेटियां बिठाई जा चुकी हैं लेकिन न तो आरोप सिद्ध हुआ और न ही कुमार को विजिलेंस की क्लीन चिट मिल रही है.
क्या कहते हैं नियम?
जनता के पैसे से चलने वाले संस्थान का हर कर्मचारी सतर्कता विभाग को उत्तरदायी होता है और किसी भी उच्च पद पर जाने या नौकरी और पेंशन से जुड़े सभी फायदों के लिए विजिलेंस क्लीयरेंस चाहिए होती है ताकि यह सुनिश्चित हो कि उसने किसी तरह का भ्रष्टाचार नहीं किया है. सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों पर आरोपों की जांच में सीवीसी द्वारा तय नियमावली (मैन्युअल) का पालन करना होता है. न्यूज़लॉन्ड्री ने सीवीसी की विजिलेंस नियमावली का अध्ययन किया.
नियमावली के मुताबिक किसी मामले में विजिलेंस एंगल है या नहीं यह शिकायत के एक महीने के भीतर तय हो जाना चाहिए. यह बात नियमावली के सातवें अध्याय में दर्ज है. इसी अध्याय में कहा गया है कि जांच तीन महीने में पूरी हो जानी चाहिए.
कार्मिक मंत्रालय यानी डीओपीटी द्वारा सितंबर 2022 में जारी सरकारी आदेश (मेमो) में दी गई गाइडलाइंस बताती हैं कि किसी कर्मचारी की विजिलेंस क्लीयरेंस तब तक नहीं रोकी जा सकती जब तक कि उस पर भ्रष्टाचार, आय से अधिक संपत्ति, नैतिक पतन और आचरण नियमों का उल्लंघन के आरोप प्रथम दृष्टया तय नहीं हो जाते, प्रोफेसर कुमार के खिलाफ करीब चार साल से चल रही जांच में कोई ऐसा आरोप नहीं है.
नियमों के मुताबिक अगर प्राथमिक जांच तीन महीने में पूरी नहीं होती तो फिर कर्मचारी की विजिलेंस क्लीयरेंस नहीं रोकी जा सकती.
‘जांच पक्षपातपूर्ण, एक के बाद एक बनी कमेटियां’
प्रोफेसर कुमार ने राष्ट्रपति, सीवीसी और शिक्षा मंत्रालय को कई पत्र लिखे हैं जिनमें आरोप लगाया है कि विजिलेंस मैन्युअल के नियमों को ताक पर रख कर चल रही ये जांच ‘दुर्भावनाग्रस्त और पक्षपातपूर्ण’ है. कुमार ने कहा है कि एक मामूली घटना को बिना कोई आरोप साबित किए जानबूझ कर घसीटा जा रहा है जिससे उनकी मानसिक प्रताड़ना हुई है और अकादमिक कार्य में बाधा हुई है. विजिलेंस क्लीयरेंस न मिलने के कारण वह किसी उच्च संस्थान में आवेदन भी नहीं कर पा रहे.
जांच कमेटी की सबसे ताज़ा मीटिंग इसी साल 11 अक्टूबर को हुई लेकिन उससे दो दिन पहले 9 अक्टूबर को कुमार ने जेएनयू की मुख्य सतर्कता अधिकारी यानी सीवीओ प्रोफेसर शंकरी सुंदररमन को पत्र लिख कर कहा कि उनके खिलाफ बनी जांच कमेटी ही निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है क्योंकि कमेटी के इन सदस्यों ने ही 2022 में जो जांच रिपोर्ट दी थी उसका वे (प्रोफेसर कुमार) जवाब दे चुके हैं और यही सदस्य दोबारा उस जवाब की समीक्षा नहीं कर सकते.
कुमार की आपत्ति के बाद जेएनयू की वीसी शान्तिश्री डी पंडित एवं सीवीओ सुंदररमन ने नई कमेटी का गठन तो कर दिया लेकिन कुमार इस कमेटी को गैरकानूनी बताते हैं. वह कई बार अपनी शिकायत में कह चुके हैं कि इस तरह जांच को घसीटने से उच्च संस्थानों में कई पदों के लिए उनके द्वारा आवेदन प्रभावित हो रहे हैं. इनमें एक पद आईआईटी गुवाहाटी के निदेशक का है जिसके लिए कुमार ने इसी साल जनवरी में आवेदन किया.
दिलचस्प है कि कुमार की आपत्ति पर सुंदररमन ने ईमेल कर कहा है कि उनको (कुमार को) विजिलेंस क्लीयरेंस दे दिया है लेकिन उस क्लीयरेंस पत्र को पढ़ने से पता चलता है कि यह एक प्रोविजनल पत्र है जिसके आधार पर किसी संस्थान में प्रोफेसर कुमार की नियुक्ति पर विचार नहीं हो सकता.
31 अक्टूबर को सीवीओ सुंदररमन को लिखे पत्र में कुमार ने आपत्ति की है और कहा है कि यह क्लीयरेंस नहीं बल्कि रिजेक्शन है और नियमावली में ऐसे पत्र का कोई प्रावधान नहीं है.
यह बताना महत्वपूर्ण है कि प्रोफेसर राजीव कुमार ने 2006 से 2015 के बीच आईआईटी प्रवेश परीक्षा में कई खामियां उजागर कीं जिसके बाद प्रवेश परीक्षा में काफी बदलाव हुए और सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में दिए एक आदेश में प्रोफेसर को गुमनाम नायक बताकर सराहना की और कहा कि इनके प्रयासों से सुधार आए और पारदर्शिता बढ़ी है.
शिक्षा मंत्रालय और सीवीसी से जेएनयू को जा चुके हैं कई पत्र
प्रोफेसर कुमार द्वारा 2020 से लगातार लिखे गए पत्रों का संज्ञान लेकर राष्ट्रपति सचिवालय ने शिक्षा मंत्रालय को उचित कार्रवाई के लिए पत्र लिखा. जिसके बाद शिक्षा मंत्रालय द्वारा भी जेएनयू से इस मामले को निपटाने और मंत्रालय को सूचित करने के लिए कहा गया. उधर सीवीसी ने भी जेएनयू के सीवीओ को कई बार कुमार की शिकायतें अग्रेसित कीं.
पिछले साल 23 दिसंबर को शिक्षा मंत्रालय ने जेएनयू को लिखा, “एक ऐसे मामले में जो स्कूल/ विभाग के स्तर पर निपट जाना चाहिए था और जिसमें एक शिकायतकर्ता ने पहले ही अपनी शिकायत वापस ले ली है तीन साल से लटका हुआ है और जांच की प्रक्रिया और अत्यावश्यकता का पालन नहीं किया गया.”
मंत्रालय ने यह भी लिखा कि प्रोफेसर कुमार के खिलाफ जो शिकायत है उसकी तुलना में बहुत ज़्यादा मानसिक प्रताड़ना और अकादमिक अलगाव का सामना कर चुके हैं.
लेकिन प्रोफेसर कुमार ने जो आरटीआई लगाई उनसे पता चलता है कि जेएनयू ने इन पत्रों के बावजूद मंत्रालय को कोई जवाब नहीं दिया और मामला अब तक घिसट रहा है. न्यूज़लॉन्ड्री ने इस बारे में वर्तमान सीवीओ शंकरी सुंदररमन और इससे पूर्व सीवीओ रामसागर को सवाल भेजे हैं लेकिन फोन और ई-मेल पर कई रिमांडर भेजे जाने के बाद भी उनका कोई जवाब नहीं मिला. उनका जवाब आने पर इस रिपोर्ट को अपडेट किया जायेगा.
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