मोदी सरकार लगातार व्यावसायिक पौधारोपण के लिए जंगलों को खोलने के रास्ते खोज रही थी. दस्तावेजों से पता चलता है कि सत्ता में पहली बार आने के साथ ही शुरू हुई ये जद्दोजहद हाल में वन संरक्षण अधिनियम में हुए संशोधनों से सफल हो चुकी है.
‘द कलेक्टिव’ ने जिन दस्तावेजों का अध्ययन किया है, वे दिखाते हैं कि केंद्र सरकार ने 2015 से ही जंगलों को प्राइवेट पार्टियों के लिए खोलने के तरीकों की खोज शुरू कर दी थी. ग्रीन क्रेडिट स्कीम बनाने के दौरान इन कोशिशों में तेजी आई. 2016 व 2018 में राष्ट्रीय वन नीति ड्राफ्ट के साथ ये कवायद आगे बढ़ती रही. इनके जरिए वन उत्पादकता बढ़ाने के लिए जंगल की जमीन पर होने वाले पौधारोपण में प्राइवेट सेक्टर को अनुमति देने पर ध्यान केंद्रित किया गया.
सरकार को दो बार पॉलिसी ड्राफ्ट बनाना पड़ा. क्योंकि जनजातीय मंत्रालय ने इन ड्राफ्ट्स द्वारा आदिवासी अधिकारों के हनन पर आपत्ति जताई और पर्यावरणविदों ने इनकी व्यापार समर्थक भाषा पर नाराजगी जताई. इसके बावजूद सरकार जंगलों को व्यापार के लिए खोलने के मकसद से नियमों में तोड़-मरोड़ करती रही. आखिरकार वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में हालिया संशोधनों के जरिए सरकार जंगल की जमीन को प्राइवेट पार्टियों के लिए खोलने में कामयाब रही.
2023 के संशोधन सरकार के लिए निजी व्यवसायों को आसानी से भारत के वन क्षेत्रों में प्रवेश करने की अनुमति देने और उन्हें जैव विविधता क्षेत्रों के बजाय लाभ केंद्रों में बदलने के लिए पर्याप्त जगह छोड़ते हैं.
पूरी कवायद का सार
भारत के पर्यावरण कानून प्राथमिक तौर पर अपराध और सजा की सहिंता नहीं हैं. बल्कि इनका मकसद जंगलों/पेड़ों की पुनर्बहाली के लिए विकल्प उपलब्ध करवाना है. वन संरक्षण अधिनियम द्वारा उपलब्ध प्रतिपूरक वनरोपण ऐसा ही एक विकल्प है. इसके तहत काटे गए जंगलों के मुआवजे के तौर पर कहीं और पौधारोपण किया जाता है. लेकिन ये योजना सफल नहीं हो पाई। इसकी मुख्य समस्या वनरोपण के लिए जरूरी जमीन की कमी और वनरोपण में उपयोग होने वाले छोटे पौधों- सैपलिंग्स के प्रति उपेक्षा भरा रवैया रहा.
2015 में पर्यावरण मंत्रालय ने योजना को सफल बनाने पर विमर्श शुरू किया. उन्होंने इसके लिए प्राइवेट प्लांटर्स की मदद लेने का तरीका सोचा. उन्होंने एक योजना बनाई जिसमें कंपनियों को गैर-वन भूमि और निम्नीकृत वन भूमि पर पौधारोपण करने के लिए प्रोत्साहन दिए जाने का प्रबंध किया गया. फिर इस तरह के पौधारोपण को प्रतिपूरक वनरोपण के तहत मान्यता देने का प्रावधान भी किया गया.
मतलब कि किसी नई जगह पर पेड़ लगाने के बजाए, पहले से उपलब्ध निजी भूमि के पौधारोपण को प्रतिपूरक वनरोपण की मान्यता दी जाएगी. जिन प्राइवेट कंपनियों ने इस तरह का पौधारोपण किया, उन्हें ग्रीन क्रेडिट स्कीम के तहत फायदा देने की बात भी थी. साथ ही पौधारोपण के व्यावसायिक उपयोग की अनुमति को भी मान्यता देने का विचार बनाया गया. इस योजना को अब भी लागू किया जाना बाकी है. इसके तहत पौधारोपण कर निजी आधार पर क्रेडिट कमाई जा सकती है, फिर इन क्रेडिट को प्राइवेट डेवलपर्स को बेचा जा सकता है, जिन्हें काटे गए पेड़ों के मुआवजे के तौर पर पौधारोपण करना जरूरी होता है.
जनवरी, 2015 में पर्यावरण मंत्रालय ने "डायरेक्टर जनरल ऑफ फॉरेस्ट एंड स्पेशल सेक्रेटरी (DGF&SS)" के तहत ग्रीन क्रेडिट स्कीम पर काम करने के लिए एक कमेटी बनाई. इसका उद्देश्य निम्नीकृत वनों और गैर-वन भूमि पर पौधारोपण में इंडस्ट्री को शामिल करना था.
उसी साल सितंबर में पर्यावरण मंत्रालय के वन विभाग ने "निम्नीकृत वन भूमि पर वनरोपण में निजी क्षेत्र की भागीदारी पर दिशानिर्देश" जारी करने के लिए विचार-विमर्श किया.
विभाग ने कहा कि निम्नीकृत वनों में जहां फॉरेस्ट कवर 10% से ज्यादा नहीं है, उन्हें ऐसी इंडस्ट्री को उपलब्ध करवाया जाएगा, जहां टिंबर (इमारती लकड़ी) और दूसरे वन उत्पादकों की जरूरत होती है. इसकी शुरुआत पायलेट प्रोजेक्ट्स के साथ होगी, जिनमें वन भूमि पर निजी सेक्टर की भागीदारी भी होगी.
इस तरह की जमीन को प्राइवेट प्लांटेशन कंपनियों को दिया जाएगा, इस तरह की जमीन का केवल 10-15% हिस्सा ही स्थानीय समुदायों और उनके द्वारा इकट्ठे किए जाने वाले गैर काष्ठ वन उत्पादों (एनटीएफपी) के उपयोग के लिए दिया जाएगा, भले ही ये लोग पहले से ही एक बड़े हिस्से से इस तरह के उत्पाद इकट्ठे कर रहे हों.
जनजातीय मंत्रालय ने इस मामले में पर्यावरण मंत्रालय की जमकर आलोचना की. मंत्रालय ने कहा कि निजी क्षेत्र की भागीदारी के लिए दी गईं गाइडलाइन, वन अधिकार अधिनियम, 2006 में दिए गए 'वन घुमंतुओं के सामुदायिक वन संसाधनों को संरक्षित, सुरक्षित और प्रबंधित करने के अधिकार का हनन करती हैं.' वनों में घुमंतु समुदायों के पास लघु वन उत्पादों को इकट्ठा करने और उनके स्वामित्व का अधिकार है और पर्यावरण मंत्रालय की गाइडलाइन उन्हें इससे रोकती हैं.
जनजातीय मंत्रालय ने कहा कि आगे बढ़ने से पहले आदिवासी समुदायों के अधिकार सुनिश्चित किए जाने चाहिए और निजी क्षेत्र की भागीदारी को तभी अनुमति दी जानी चाहिए जब संबंधित ग्राम सभा 'उनके जंगलों को प्रबंधित करने में निजी क्षेत्र' को शामिल करने की अनुमति दे.
जैसा हमने इस सीरीज के पहले हिस्से में लिखा, पर्यावरण मंत्रालय ने 2016 में भी एक वन नीति का ड्राफ्ट बनाया था, जिसे मंत्रालय को वापस लेना पड़ा था, क्योंकि जनजातियों और वन आश्रित समुदायों की कीमत पर निजी क्षेत्र के खिलाड़ियों के लिए पक्षपात करने पर मंत्रालय की खूब आलोचना हुई थी.
इसके बाद केंद्र सरकार ने संसद को नई वन नीति बनाए जाने का भरोसा दिलाया. 2018 में एक और ड्राफ्ट बनाया गया. लेकिन इसमें 2016 के ड्राफ्ट का प्रभाव था, इसमें भी टिंबर के पौधारोपण जैसी गतिविधियों में प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी पर ध्यान केंद्रित किया गया, जबकि वन आश्रित समुदायों और वन संरक्षण को नजरंदाज किया गया था. तर्क दिया गया कि इमारती लकड़ी की मांग बढ़ रही है, जिसके चलते आयात में तेजी आ रही है.
ये सही है. भारत का इमारती लकड़ी का आयात बढ़ रहा है. लेकिन "इंटरनेशनल ट्रॉपिकल टिंबर ऑर्गेनाइजेशन" की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2009 से 2019 के बीच भारत का लकड़ी का औसत वार्षिक उत्पादन 46 मिलियन क्यूबिक मीटर्स के आसपास था. इसमें से 44 मिलियन क्यूबिक मीटर्स या 95% लकड़ी, जंगल या टिंबर प्लांटेशन के बाहर से आती है.
सरकार जिसे समस्या बता रही थी, उसके समाधान के लिए 2018 की ड्राफ्ट नीति में कहा गया कि "वन आधारित औद्योगिक क्षेत्र के विकास की जरूरत है" और "फॉरेस्ट कॉरपोरेशन और इंडस्ट्री यूनिट्स को कच्चे माल की मांग को पूरा करने के लिए औद्योगिक पौधारोपण की कोशिश तेज करनी चाहिए." ड्राफ्ट में कहा गया कि जंगलों की उत्पादकता को बढ़ाना होगा, ताकि इमारती लकड़ी का उपयोग बढ़ाया जा सके, जिससे "दूसरी हाई कार्बन फुटप्रिंट वाली लकड़ियों पर निर्भरता को कम किया जा सके."
इस ड्राफ्ट में भी टिंबर इंडस्ट्री को प्राथमिकता दी गई और वन अधिकार अधिनियम (FRA) दिए अधिकारों के उल्लंघन की कोशिश की गई.
वन प्रशासन और सामुदायिक वन अधिकार पर करने वाले स्वतंत्र शोधार्थी तुषार दास कहते हैं, "2018 की वन नीति ड्राफ्ट का ना केवल नागरिक समाज समूहों ने विरोध किया, बल्कि जनजातीय मंत्रालय ने भी जनजातीय अधिकारों को नजरंदाज करने और वन उत्पादकता के नाम पर निजी हितों को बढ़ावा देने के लिए इसका विरोध किया."
ड्राफ्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए जनजातीय मंत्रालय ने कहा, "वनरोपण और कृषि वानिकी के लिए ड्राफ्ट में उल्लेखित पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल उस इलाके को उपयोग के लिए खोलते हैं, जिसके ऊपर FRA के तहत आदिवासियों और वन घूमंतुओ का कानूनी अधिकार है."
ये ड्राफ्ट नीति भी कहीं नहीं पहुंची. लेकिन इसके बाद इंडस्ट्री के पक्ष में नियम बनाने का जो काम 2015 से नहीं हो पा रहा था, उसके लिए सरकार ने नियमों को मोड़ना चालू कर दिया और कई कार्यकारी आदेश जारी किए, जिन्हें संसद की जांच का सामना नहीं करना पड़ा.
जुलाई, 2019 में पर्यावरण मंत्रालय ने स्थानीय वन विभाग, एक ख्यात NGO और प्राइवेट एंटिटी के त्रिपक्षीय समझौते के जरिए निम्नीकृत वनों में व्यावसायिक पौधारोपण को अनुमति दे दी.
पिछले साल जुलाई में वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत आने वाले नियमों को बदल दिया गया, जिनके जरिए आदिवासियों और वन घूमंतु समुदायों की सहमति के बिना ही सरकार वन भूमि को प्राइवेट डेवलपर्स को दे सकती थी. जबकि वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत इन समुदायों की अनुमति लेना जरूरी है.
आखिरकार वन संरक्षण अधिनियम को 2023 में संशोधित कर दिया गया और व्यावसायिक पौधारोपण करने वालों के प्रवेश के लिए एक तेज-तर्रा कानूनी फ्रेमवर्क बना दिया गया.
संशोधित वन अधिकार कानून
2016 और 2018 के दोनों ही ड्राफ्ट ने प्राइवेट प्लेयर्स के टिंबर के रोपण और दूसरे व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए जंगलों में प्रवेश को आसान करने की कोशिश की थी. ऐसा करने के लिए पर्यावरण मंत्रालय ने कई कानूनों को नजरंदाज किया था, जो वन संरक्षण के साथ-साथ वन आश्रित लोगों के उनके पारंपरिक वन पर अधिकारों को सुरक्षित रखते थे.
1988 के वन नीति में कहा गया था कि वन आधारित इंडस्ट्री को अपनी जरूरत के कच्चा माल को जुटाने के लिए खुद की इसका उत्पादन करना होगा और जो लोग उनके लिए कच्चे माल का उत्पादन कर सकते हैं, उनके लिए क्रेडिट, तकनीकी सलाह और ट्रांसपोर्ट जैसी सेवाएं उपलब्ध करवानी होंगी.
वन संरक्षण अधिनियम में भी ऐसा ही कहा गया। वन कानून कहता है कि अगर जंगल की किसी भी जमीन को किसी प्राइवेट व्यक्ति या कंपनी को दिया गया है, तो पहले उन्हें केंद्र सरकार से जंगल के उपयोग की अनुमति लेनी होगी. ये अनुमति कई कड़ी शर्तों के साथ आता था, जिसमें जंगलों को न्यूनतम नुकसान, जिन पेड़ों को काटा जाना है, उनके ऐवज में मुआवजा (नेट प्रेजेंट वैल्यू कहा जाता था) और इतने ही इलाके में नए पेड़ लगाने जैसी बाध्यताएं थीं.
लेकिन संशोधित वन (संरक्षण) अधिनियम अब पर्यावरण मंत्रालय के विवेक पर वन भूमि को निजी खिलाड़ियों को पट्टे पर देने की अनुमति देता है. नए कानून के तहत, मंत्रालय अपनी इच्छानुसार आदेश पारित कर यह तय कर सकता है कि कि कैसे वन भूमि को कॉरपोरेशंस को लीज पर दिया जाए.
मंत्रालय कानून और उसके तहत नियमों को निष्पादित करने के लिए "आदेश" पारित करते हैं. लेकिन संशोधित वन कानून इस बारे में कोई मार्गदर्शन नहीं देता है कि ये आदेश वनों को प्राइवेट एंटिटीज को लीज पर देने के लिए "नियम और शर्तें" कैसे निर्धारित करेंगे.
इन आदेशों को संसद की मंजूरी की आवश्यकता नहीं होगी. जबकि कानूनों को लागू करने से पहले संसद द्वारा अनुमोदित किया जाता है, कानून के तहत नियमों को इसके सामने रखा जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे कानून के साथ तालमेल में हैं. लेकिन कार्यकारी आदेशों, जिन्हें पर्यावरण मंत्रालय ने अब पारित करने की अनुमति दे दी है, को लागू होने से पहले या बाद में संसदीय सहमति की आवश्यकता नहीं होगी.
मूल निवासियों, जनजातियों और वन घूमंतु समुदायों के लिए काम करने वाली सुप्रीम कोर्ट की वकील शोमोना खन्ना कहती हैं, 'संशोधित अधिनियम संसदीय निगरानी की कोई जगह नहीं छोड़ते. केंद्र सरकार इस संबंध में दिशानिर्देश, आदेश और कार्यकारी निर्देश जारी कर सकती है कि कैसे प्राइवेट एंटिटी को जंगल की जमीन लीज पर दी जाएगी, कौन सी गतिविधियां वन उद्देश्य के लिए होंगी, जिनके लिए वन संरक्षण अधिनियम की धारा 2 के तहत पहले से अनुमति नहीं लगेगी. यहां तक कि केंद्र सरकार किसी सरकारी संस्था या संगठन या एंटिटी को अधिनियम को लागू करने के लिए निर्देश जारी कर सकेगी.'
संशोधित अधिनियम प्राइवेट पार्टियों को लीज पर दी गई जमीन, जिस पर टिंबर और दूसरे पौधारोपण हो रहा है, उसे वानिकी गतिविधि मानता है, और संभावित रूप से उन्हें संरक्षण कानून के तहत व्यापक छूट प्रदान करेगा.
खन्ना ने कहा, 'अगर जंगल की जमीन का उपयोग वन उद्देश्य के लिए हो रहा है, तो इसे महज केंद्र सरकार द्वारा तय किए गए 'निर्देश' पर प्राइवेट कंपनियों को लीज पर दिया जा सकता है और हम नहीं जानते कि सरकार के ये निर्देश क्या हो सकते हैं. संशोधित अधिनियम में ये नहीं बताया गया है कि कैसे इस विधायी शक्ति के डेलिगेशन का उपयोग किया जाएगा, स्पष्ट स्थिति ना होने के चलते मनमर्जी से इसका उपयोग हो सकता है.'
“इसे विधायी शक्ति का अत्यधिक प्रत्यायोजन कहा जा सकता है. संशोधित अधिनियम में वानिकी गतिविधियों के रूप में पौधारोपण को शामिल किया गया है. केंद्र अब एक आदेश पारित कर सकता है कि वानिकी गतिविधियों के लिए निजी संस्थाओं को वन भूमि पट्टे पर देने के लिए पूर्वानुमति की आवश्यकता नहीं होगी. यह निजी संस्थाओं को कुछ मामलों में केंद्र की मंजूरी लेने से छूट दे सकता है, जिस पर वह भविष्य में फैसला करेगा,” पर्यावरण वकील और वन और पर्यावरण के लिए कानूनी पहल के सह-संस्थापक ऋतविक दत्ता ने कहा.
ऊपर से प्राइवेट सेक्टर जो पौधारोपण करेगा, उसके लिए उन्हें ग्रीन क्रेडिट्स भी मिलेंगी, जिनका उपयोग मुनाफा कमाने के लिए हो सकता है. संशोधित वन अधिनियम से जो बदलाव किए गए हैं, वे 2018 के ड्राफ्ट में भी शामिल थे, जिन्हें स्वीकार नहीं किया गया था.
2018 के ड्राफ्ट में वन्यजीव प्रबंधन के सेक्शन में 'इको टूरिज्म मॉडल्स' और जूलॉजिकल गार्डन्स को डाला गया था, इस सेक्शन में वे गतिविधियां शामिल थीं, जिनके लिए केंद्र से पूर्व अनुमति की जरूरत नहीं होगी. अब नए संशोधनों के बाद चिड़ियाघरों, सफारी और इको टूरिज्म केंद्रों को भी वन संरक्षण अधिनियम के दायरे से बाहर कर दिया गया है.
(सरकार ने वनों की कानूनी परिभाषा बदल दी, जिससे निजी वृक्षारोपण और विशाल क्षेत्र संरक्षण कानून के दायरे से बाहर हो गए.अगले भाग में, हम दिखाएंगे कि वनों की परिभाषा कैसे बदल गई है और भारत के वन क्षेत्र को तय करने में सरकार की विवादास्पद भूमिका क्या है. पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
साभार: The Reporter's Collective
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