बढ़ते तापमान पर अंकुश लगाने के तरीक़ों पर लगभग तीन दशकों से गहन बातचीत हो रही है. इस दौरान सालाना संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन में खेती-बाड़ी को प्रमुखता से कभी शामिल नहीं किया गया. दुबई में चल रहे जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के 28वें कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप-28) में पहली बार यह बदलाव दिखा.
बैठक के दौरान कम से कम 134 देश टिकाऊ खेती, बेहतर खाद्य प्रणाली पर दस्तख्त करने के लिए एक साथ आए. इन देशों में 5.7 अरब से ज्यादा लोग रहते हैं. साथ ही, दुनिया भर में खाने-पीने की चीजों की खपत का लगभग 70 प्रतिशत यहीं होता है. यही नहीं, लगभग 50 करोड़ किसान भी यहीं रहते हैं और वैश्विक खाद्य प्रणाली से कुल उत्सर्जन का 76 प्रतिशत भी यहीं से होता है. इस साल के शिखर सम्मेलन के मेजबान संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने इस पर बातचीत को आगे बढ़ाया.
बैठक के अध्यक्ष ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के दौरान दुनिया भर में खाद्य सुरक्षा में मदद करने के लिए 2.5 अरब डॉलर से ज्यादा की धनराशि जुटाने की घोषणा की. साथ ही संयुक्त अरब अमीरात और बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के बीच नई साझेदारी की जानकारी भी दी गई. इस साझेदारी के जरिए जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए खेती-बाड़ी में नए तरीक़ों के लिए 200 मिलियन डॉलर लगाए जाएंगे.
संयुक्त अरब अमीरात की जलवायु परिवर्तन मंत्री और कॉप-28 में खाद्य प्रणाली पर प्रमुख मरियम अल्मेहिरी ने एक बयान में कहा, “पेरिस जलवायु समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने और तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस के भीतर रखने का ऐसा कोई रास्ता नहीं है जो खेती-बाड़ी के तरीकों, खेती और जलवायु के बीच बातचीत को तत्काल हल नहीं करता है.” उन्होंने कहा, “देशों को जलवायु से जुड़ी अपनी कार्रवाई के केंद्र में खाद्य प्रणालियों और खेती को रखना चाहिए. वैश्विक उत्सर्जन को हल करन चाहिए और जलवायु परिवर्तन की सबसे ज्यादा मार सहने वाले किसानों के जीवन और आजीविका की रक्षा करनी चाहिए.”
साल 2015 में हुए ऐतिहासिक पेरिस जलवायु समझौता दुनिया भर में तापमान में बढ़ोतरी को पूर्व-औद्योगिक समय की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस से “काफी नीचे” तक सीमित करने पर जोर देता है. साथ ही, इसमें वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री तक सीमित करने की बात कही गई है.
रीजनरेटिव फार्मिंग
कॉप-28 अध्यक्ष ने कहा कि दुबई में हुई खेती-बाड़ी से जुड़ी घोषणा से खाद्य और कृषि संगठन रीजनरेटिव खेती को बढ़ावा देने के लिए एकजुट होंगे. साल 2030 तक 16 करोड़ हेक्टेयर भूमि को रीजनरेटिव खेती के तहत लाया जाएगा. साथ ही आने वाले समय में 2.2 बिलियन डॉलर का निवेश किया जाएगा और दुनिया भर में 36 मिलियन किसानों को इसमें शामिल किया जाएगा. रीजेनरेटिव खेती समय के साथ मिट्टी को ख़राब करने के बजाय उसे बहाल करने और उसकी सेहत को बेहतर रखने के उपाय करती है.
इसी साल जनवरी में छपे एक रिसर्च से पता चलता है कि अंतर्राष्ट्रीय जलवायु बातचीत में हमेशा जीवाश्म ईंधन और वित्त पर जोर रहता है. इस वजह से खेती करने के तरीकों को हमेशा नजरअंदाज किया जाता है. जबकि खेती जलवायु परिवर्तन की एक अहम वजह है. कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग एक-तिहाई (21-37 प्रतिशत की सीमा में) खेती और उससे जुड़ी प्रणालियों, खेती और भूमि के इस्तेमाल, भंडारण, परिवहन, पैकेजिंग, प्रसंस्करण, खुदरा और खपत से होता है.
घोषणा में कहा गया, “हम इस बात पर जोर देते हैं कि पेरिस समझौते के लंबी अवधि के लक्ष्यों को पूरी तरह से पाने के किसी भी रास्ते में खेती और इसके तरीकों को शामिल होना चाहिए.” “हम पुष्टि करते हैं कि जलवायु परिवर्तन की जरूरतों का जवाब देने के लिए कृषि और खाद्य प्रणालियों में तुरंत बदलाव होना चाहिए और इसके तरीकों को जलवायु परिवर्तन के हिसाब से विकसित किया जाना चाहिए.”
जलवायु परिवर्तन पर होने वाली सालाना बातचीत में अपनी तरह की यह पहली घोषणा, मौसम में हो रहे बदलाव पर मिल-जुलकर की जाने वाली कार्रवाई की जरूरत पर जोर देती है. यह दुनिया भर की बड़ी आबादी खासकर कमजोर देशों और समुदायों में रहने वाले लोगों पर असर डालती है. इसमें 2025 में ब्राजील के बेलेम शहर में आयोजित होने वाले 30वें जलवायु शिखर सम्मेलन से पहले कृषि और खाद्य प्रणालियों को राष्ट्रीय एडेप्शन योजनाओं, राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान और राष्ट्रीय जैव विविधता रणनीतियों और ऐक्शन प्लान में साथ लाने का आह्वान किया गया.
स्वागतयोग्य कदम लेकिन खास चीजों की कमी
कई जानकारों ने इस घोषणा की सराहना की है. इंटरनेशनल एडवोकेसी ग्रुप वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट में खाद्य और भूमि उपयोग गठबंधन के पार्टनरशिप निदेशक एडवर्ड लियो डेवी ने कहा, “यह अद्भुत चीज और वह क्षण है जब लगता है कि खाने-पीने की चीजें जलवायु प्रक्रिया में परिपक्वता ला रही है.” डेवी ने कहा, “यह मजबूत संकेत है” कि “हम सिर्फ 1.5-डिग्री लक्ष्य को सामने रख सकते हैं अगर हम वैश्विक खाद्य प्रणाली को ज्यादा टिकाऊ और बदलते मौसम के हिसाब से ढालने की दिशा में ले जाने के लिए तेजी से काम करते हैं.”
हालांकि, अन्य विशेषज्ञ इतने उत्साहित नहीं थे. कुछ लोगों ने घोषणा में दुनिया भर की खाद्य प्रणाली की कुछ जरूरी चीजों का उल्लेख करने में विफलता की ओर इशारा किया. इनमें वे चीजें भी शामिल हैं जो कुछ हद तक पश्चिमी देशों से जुड़ी अर्थव्यवस्था में उपभोग पैटर्न के कारण हैं.
गैर-लाभकारी संगठनों के समूह क्लाइमेट ऐक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल में ग्लोबल पॉलिटिकल स्ट्रेटजी के प्रमुख हरजीत सिंह ने कहा, “यह घोषणा औद्योगिक खेती से लोगों और धरती पर होने वाले दमघोंटू असर के अहम मुद्दे को नजरअंदाज करती है. हालांकि, यह खाद्य प्रणालियों में छोटे किसानों की भूमिका को स्वीकार करता है, लेकिन यह उन पहलों के लिए जरूरी वित्तीय सहायता नहीं दे पाया जो पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने और वैश्विक खाद्य सुरक्षा पक्की करने में इन किसानों की जरूरी भूमिका को बढ़ावा देते हैं.”
सिंह ने कहा, “हमें बुनियादी समस्याओं को हल करने और जलवायु संकट से असरदार तरीके से निपटने के लिए जरूरी बदलावों को बढ़ावा देने के लिए खास कामों और प्रतिबद्धताओं की जरूरत है.”
लेकिन इसे लागू करना इतना आसान नहीं होगा. उत्सर्जन को कम करने के किसी भी परिदृश्य का मतलब खेती के तरीकों में बड़े बदलाव होंगे. खेती किस तरह की जाती है, इससे लेकर जंगलों और प्राकृतिक कार्बन सिंक का प्रबंधन किस तरीके से किया जाता है. इन बड़े बदलावों को हासिल करना अन्य क्षेत्रों की तुलना में खेती के लिए ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो सकता है.
इस बीच, उत्सर्जन में कमी की गति सभी क्षेत्रों में बहुत धीमी है. दूसरे क्षेत्रों ने कई तकनीकों की पहचान की है जो उत्सर्जन को तेजी से कम कर सकती हैं. कंसल्टेंसी फर्म मैकिन्से की साल 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, ये विकल्प आवश्यक रूप से खेती में मौजूद नहीं हैं. इसमें कहा गया है कि दूसरे क्षेत्रों की तुलना में कृषि काफी कम समेकित है और उत्सर्जन को कम करने के लिए दुनिया भर की एक-चौथाई आबादी की ओर से कार्रवाई की जरूरत है.
रिपोर्ट में कहा गया है, “इस क्षेत्र में जलवायु लक्ष्यों के साथ-साथ जैव विविधता, पोषण जरूरतों, खाद्य सुरक्षा और किसानों और खेती से जुड़े समुदायों की आजीविका सहित उद्देश्यों का एक जटिल सेट भी है.” इसमें कहा गया है, “खेती से उत्सर्जन को कम करने के लिए पहला कदम जहां तक हो सके कुशलतापूर्वक भोजन का उत्पादन करना है, यानी हम जिस तरह से खेती करते हैं उसे बदलना है.” “ जीएचजी (ग्रीनहाउस गैस)-कुशल कृषि प्रौद्योगिकियों और तरीक़ों का एक सेट है, जिनमें से कुछ पहले से ही इस्तेमाल किए जा रहे हैं, 2050 तक क्षेत्र के जरूरी उत्सर्जन में लगभग 20 प्रतिशत की कमी ला सकते हैं.”
एक कदम आगे बढ़ने जैसी है घोषणा
चिंताओं के बावजूद, घोषणा को औपचारिक जलवायु वार्ता में खाद्य प्रणालियों और खेती को शामिल करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ना माना जा सकता है. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) ने जर्मनी में 2017 के बॉन शिखर सम्मेलन में कृषि पर कोरोनिविया संयुक्त कार्य नामक एक समिति का गठन किया, जो कृषि और खाद्य सुरक्षा पर केंद्रित थी.
तब से पैनल को सालाना बैठकों में खाने-पीने की चीजों पर चर्चा के लिए अनौपचारिक तंत्र के रूप में देखा जाने लगा है. इसने 2021 में ग्लासगो में जलवायु कॉप में कुछ कार्यक्रम आयोजित किए, लेकिन इसकी पहुंच कम थी. मिस्र में शर्म अल-शेख में, इसने वार्ता के मौके पर कोरोनिविया डायलॉग तैयार किया, जिसमें काम की कई चीजें नहीं थी.
दस्तावेज़ के पाठ से कृषि पारिस्थितिकी और खाद्य प्रणाली शब्द हटा दिए गए थे. भोजन से संबंधित आपूर्ति के मुद्दों पर जोर दिया गया, लेकिन हानि और बर्बादी या अस्थिर उपभोग पैटर्न जैसी मांग से जुड़ी समस्याओं को बाहर रखा गया.
उस परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो, कॉप-28 में की गई घोषणा एक अहम कदम है जो कुछ सालों में खाद्य प्रणालियों और खेती को मुख्य वार्ता में शामिल कर सकता है.
घोषणा से दूर रहा भारत
हालांकि अमेरिका, चीन जैसे बड़े उत्सर्जकों, जर्मनी और फ्रांस जैसे यूरोपीय संघ के बड़े देशों और कई अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों ने घोषणा पर हस्ताक्षर किए, लेकिन भारत की इस घोषणा से दूरी चर्चा का विषय रही.
इसे अंतरराष्ट्रीय वार्ताओं में भारत के पारंपरिक रुख से बड़े बदलाव के रूप में नहीं देखा गया, जिसमें किसी भी समयसीमा पर प्रतिबद्धता नहीं जताई गई थी, जिसका देश की खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव पड़ सकता है.
यही रुख भारतीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 28 नवंबर को दुबई बैठक शुरू होने से ठीक पहले दोहराया था. उन्होंने कहा कि देश खाद्य सुरक्षा पर कोई समझौता नहीं कर सकता है और सरकार कृषि क्षेत्र को जलवायु के अनुकूल बनाने के लिए सभी कोशिश कर रही है.
घोषणाओं की प्रतिबद्धताओं में कृषि और खाद्य प्रणालियों को राष्ट्रीय एडेप्शन योजनाओं में शामिल करना और राष्ट्रीय स्तर पर तय योगदान शामिल है जो सभी देश यूएनएफसीसीसी के सामने रखते हैं. एक शीर्ष अधिकारी ने कहा, इसलिए, भारत के लिए आमूलचूल नीतिगत बदलाव किए बिना घोषणा का समर्थन करना संभव नहीं था, जिसके लिए देश में सभी हितधारकों के साथ गंभीर विचार-विमर्श की आवश्यकता है.
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