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तपस्या

जंगलों का व्यापारीकरण: वन संरक्षण के नाम पर खोखले आश्वासन और फिर मुंह फेरती सरकार

जुलाई 2017 में डॉ. हर्षवर्धन भारत के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मामलों के केंद्रीय मंत्री हुआ करते थे.उस समय डाॅक्टर हर्षवर्धन ने संसद में आश्वासन दिया था," एक नई वन नीति का मसौदा तैयार किया जा रहा है और यह जल्द ही तैयार हो जाएगा". मौजूदा वन नीति करीब 29 साल पुरानी हो चुकी थी. नई वन नीति का मकसद सभी तीन केंद्रीय वन कानूनों को एक साथ जोड़ना था. इन तीनों केंद्रीय वन कानूनों के नियमों और विनियमों में इस तरीके का बदलाव किया गया है कि मौजूदा वक्त में ये कानून जिस मकसद से बनाए गए थे, उससे अलग मकसद के लिए काम कर रहे हैं. यह तीनों केंद्रीय वन कानून उद्योगों के पक्ष में वन संरक्षण को कमजोर करते हैं.

मोदी सरकार वन नीति के वादे को आज तक पूरा नहीं कर पाई है. पत्रकारों द्वारा समीक्षा किए गए रिकॉर्ड से पता चलता है कि एक जवाबदेह निगरानी के तौर पर काम करने वाली सरकारी आश्वासन से संबंधित संसदीय समिति ने संसद में दिए गए आश्वासन से बार-बार पीछे हटने की कोशिश करने के लिए और 5 साल में आश्वासन न पूरा कर पाने पर सरकार को फटकार लगाई. वन नीति के जिन मसौदों को साल 2016 और 2018 में जांच परख के लिए पेश किया गया था, वे आदिवासी लोगों और वनवासियों के अधिकारों की अनदेखी करने और जंगलों में कॉर्पोरेट को घुसने की सुविधा देने के लिए कड़ी आलोचना के घेरे में आ गए थे.

केंद्र पर देश के वन संसाधनों को प्रशासित करने के लिए एक नीति बनाने की जिम्मेदारी थी. केंद्र ने इस जिम्मेदारी को छोड़ दिया. इसके बजाय केंद्र ने नियमों में बदलाव और कार्यकारी आदेशों के जरिए हरित कानूनों में कई ऐसे बदलाव किए, जिससे प्रोजेक्ट डेवलपर के लिए जंगलों के संसाधनों का अपने फायदे के लिए निकासी करना आसान हो गया. क्योंकि कार्यकारी आदेश जारी करने से पहले लिए संसद के अनुमोदन की जरूरत नहीं होती है.

सरकार ने अंततः अगस्त 2023 में वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन किया, ताकि सरकार वह बदलाव कर सके जो उसने 2016 और 2018 के मसौदे के जरिए लाने की कोशिश की थी.

सामुदायिक वन अधिकारों पर काम करने वाले एक स्वतंत्र शोधकर्ता तुषार दास ने बताया, “राष्ट्रीय वन नीति महत्वपूर्ण है क्योंकि यह राज्य के समग्र दृष्टिकोण को बताती है कि जंगलों को कैसे प्रशासित किया जाना चाहिए. इसके साथ राष्ट्रीय वन नीति यह भी बताती है कि सहभागी वन प्रबंधन और समुदायों के अधिकारों की मान्यता सुनिश्चित करने के लिए किस तरह का कानूनी तंत्र स्थापित करने की जरूरत है? साल 1988 की वन नीति से पहले की नीति औपनिवेशिक रुझान वाली थी. मतलब नीति ऐसी थी जहां जंगल एक उपनिवेश के तौर पर देखा जाता था और जंगल के संसाधनों की निकासी ज्यादा से ज्यादा राजस्व हासिल करने की तरफ झुकी हुई थी. इस नीति में साल 1988 में बदलाव हुआ. साल 1988 की वन नीति ने वनवासियों के अधिकारों और वन प्रबंधन में उनकी भागीदारी पर ध्यान केंद्रित किया".

तुषार दास ने आगे बताया “आदिवासी अधिकारों और लोगों की भागीदारी के विषय पर सोचने से मालूम पड़ता है कि साल 2018 की वन नीति का मसौदा 1988 की वन नीति से निकली प्रगति को रद्द करने का काम रहा है. साल 2018 में आया वन नीति का मसौदा अब तक वन नीति में तब्दील नही हो पाया है. इसके बावजूद भी केंद्र सरकार इसी ढर्रे पर आगे बढ़ी. केंद्र सरकार ने कार्यकारी आदेशों और वन संरक्षण अधिनियम में संशोधन के जरिए वह बदलाव किया जो वह करना चाहती थी. ये बदलाव वन निष्कर्षण (जैसे कि जंगल के संसाधन की निकासी से जुड़ी कोई भी प्रक्रिया) के ढांचे की तरफ वापस ले जाते हैं जो निजी व्यवसायों के फायदे के पक्ष में झुका हुआ है."  

तीन साल में दो यू-टर्न

2016 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने नई वन नीति का मसौदा सार्वजनिक किया था. मगर इस मसौदे पर इस बात को लेकर सरकार की कड़ी आलोचना हुई कि इस मसौदे में आदिवासियों और वनवासियों के अधिकारों की अनदेखी की गयी है. जबकि साल 2006 में वन अधिकार अधिनियम के जरिए पहले ही आदिवासियों और वनवासियों के अधिकारों को वैध कर दिया गया था. इसलिए सरकार ने बाद में इस मसौदे को मंजूर नहीं किया। इसके अलावा इस मसौदे की इसलिए भी आलोचना की गयी थी क्योंकि इससे जंगलों में कॉरपोरेट्स की इंट्री आसान बना दी गयी थी.

अनिश्चितता के बादल और नीति शून्यता के बीच सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के सांसद लल्लू सिंह ने 2017 में मंत्रालय से पूछा कि क्या उन्होंने एक नई वन नीति लाने का फैसला किया है और वह ऐसा करने की योजना कब बना रहे हैं? बिना कोई समय सीमा बताए, तत्कालीन पर्यावरण मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने संसद को बताया कि उनके मंत्रालय ने भोपाल में भारतीय वन प्रबंधन संस्थान को राष्ट्रीय वन नीति का मसौदा तैयार करने का काम सौंपा था, संस्थान ने इसे जमा कर दिया था लेकिन मंत्रालय ने अभी तक इसे अंतिम रूप नहीं दिया है. केंद्र ने संसद को भरोसा दिया कि वह नई वन नीति को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में है.

पर्यावरण मंत्री ने 2017 में संसद को बताया कि सरकार राष्ट्रीय वन नीति का मसौदा तैयार कर रही है.

भले ही मंत्री किसी मंच पर कहे अपनी बातों से पलट जाएं मगर मंत्री सदन में दिए गए अपने शब्दों पर कायम रहते हैं. भारत सरकार की संसदीय प्रक्रियाओं की नियमावली के अनुसार संसद को दिए गए आश्वासन को तीन महीने के भीतर लागू करना होता है. अगर मंत्रालय या सरकारी विभाग अपना काम समय पर पूरा नहीं कर पाता है तो उसे एक्सटेंशन मांगना पड़ता है. ऐसे मामलों में जहां सरकार अपने आश्वासन को लागू करने में विफल रहती है, उसे सरकारी आश्वासन समिति से अपने आश्वासन को छोड़ने का अनुरोध करना पड़ता है.

यह 15 सदस्यीय समिति संसद में कहे गए मंत्रिस्तरीय वादों और आश्वासनों और वचनों की समीक्षा करती है और निर्धारित समय के भीतर उनके कामकाज पर लोकसभा को रिपोर्ट करती है. केंद्र सरकार ने 2018 में राष्ट्रीय वन नीति का एक और मसौदा तैयार किया. इसमें भी पिछली मसौदा नीति के तहत होने वाले उल्लंघन को दोहराया गया, आदिवासी और अन्य वन-निर्भर समुदायों के अधिकारों पर निजी क्षेत्र के हितों को प्राथमिकता दी गई। सरकार बाद में इस मसौदा नीति पर भी चुप हो गई.

दो बार असफलताओं का सामना करने के बाद सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटने की कोशिश की. साल 2019 में सरकार ने संसदीय समिति से कहा कि नई राष्ट्रीय वन नीति लाने के अपने आश्वासन पर उसे कायम नहीं रखा जा सकता. संसदीय समिति सरकार से इस बात पर सहमत नहीं थी.

मोदी सरकार ने तीसरी बार वन नीति पर काम करना शुरू किया. मई 2020 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने एक कैबिनेट नोट तैयार किया. यह कैबिनेट नोट नई वन नीति की रूपरेखा का एक औपचारिक प्रस्तावित दस्तावेज था, जिसके लिए पर्यावरण मंत्रालय मंजूरी मांग रहा था. इस कैबिनेट नोट को कैबिनेट सचिव को सौंप दिया गया, जो प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करने वाले केंद्र सरकार के सबसे वरिष्ठ नौकरशाह होते हैं. लेकिन कैबिनेट सचिवालय ने कारणों सार्वजनिक किए बिना सितंबर 2021 में नोट वापस कर दिया और पर्यावरण मंत्रालय से इसे संशोधित करने के लिए कहा। पर्यावरण मंत्रालय ने संशोधन की जहमत नहीं उठाई.

सरकार ने 2021 में सरकारी आश्वासन से संबंधित संसदीय समिति से फिर से कहा कि उसे अपनी नई वन नीति बनाने की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जाए. संसदीय समिति ने एक बार फिर मंत्रालय के अनुरोध को खारिज कर दिया और "वनों के संरक्षण, विस्तार और टिकाऊ प्रबंधन के आधार पर पारिस्थितिक संतुलन की रक्षा करने की जरूरत और मौजूदा वक्त के लोगों और भावी पीढ़ी की आजीविका की सुरक्षा पर जोर दिया और सिफारिश की कि सरकारी आश्वासन को उसके तार्किक अंत पर लाया जाए".

सरकारी आश्वासनों से संबंधित संसदीय समिति ने पर्यावरण मंत्रालय के राष्ट्रीय वन नीति लागू करने के आश्वासन को छोड़ने के अनुरोध को दो बार खारिज कर दिया.

संसदीय समिति ने दिसंबर 2022 में लोकसभा में पेश अपनी रिपोर्ट में पांच साल बीत जाने के बाद भी वन नीति लाने के अपने आश्वासन को पूरा नहीं करने के लिए केंद्र को फटकार लगाई. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि मंत्रालय को "मामले को सख्ती से आगे बढ़ाने" का निर्देश देने के बाद, "इस आश्वासन को लागू करने में तेजी लाने के लिए कम से कम 2020 से ठोस और समन्वित प्रयास किए जा सकते थे, जो दुर्भाग्य से नहीं हुआ".

वन नीति को लागू करने के संबंध में सरकारी संसदीय आश्वासन (2022-23) समिति की टिप्पणियां.

लंबित आश्वासन, एक कमज़ोर व्यवस्था

पर्यावरण मंत्रालय के नाम के सामने सरकारी आश्वासनों यानि वादों की एक लंबी सूची है, जिसे उसने तोड़ दिया या उसे बेवजह बहुत लंबे समय तक खींचा. सरकारी आश्वासनों की संसदीय समिति (2022-23) ने कहा कि मंत्रालय के 49 ऐसे आश्वासन थे, जो बहुत लंबे समय से लागू किए जाने के इंतजार में खड़े थे. इनमें से 40 आश्वासन वर्तमान लोकसभा में दिए गए थे, 6 आश्वासन 2014 में चुनी गई 16वीं लोकसभा में दिए गए थे और बाकी 3 आश्वासन 2009 के चुनावों के बाद चुनी गयी सदन को दिए गए थे.

चूंकि 15वीं और 16वीं लोकसभा द्वारा दिए गए 9 आश्वासनों में देरी 3 से 11 साल तक थी, इसलिए संसदीय समिति ने इस बात पर स्पष्टता मांगी थी कि मंत्रालय ने अपने वादों को पूरा करने की कैसी योजना बनाई है? मंत्रालय ने जवाब दिया कि उसने अपने आश्वासनों को प्राथमिकता दी है मगर संसदीय समिति को यह भी बताया कि लंबित आश्वासनों की समीक्षा के लिए बैठकों की कोई निश्चित समय सीमा निर्धारित नहीं की गयी थी. कितनी बार बैठक होगी, यह भी तय नहीं किया गया था.उन्होंने यह भी कहा कि वे "पिछले एक या दो महीनों से नियमित समीक्षा करने की कोशिश कर रहे थे".

पर्यावरण मंत्रालय ने संसदीय समिति को बताया कि संसद में दिए गए आश्वासनों की समीक्षा के लिए कोई निश्चित समय सीमा नहीं है.

समिति ने 49 लंबित आश्वासनों में से 21 पर गौर किया. ये वन नीति, पर्यावरण और जैव विविधता कानूनों में संशोधन, नदी क्षेत्र विनियमन, तटीय प्रबंधन, शिकार पर विनियमन और पश्चिमी घाट के संरक्षण सहित अन्य सरकारी आश्वासनो से जुड़े हुए थे. हालाँकि सरकार ने 21 लंबित आश्वासनों में से 14 को लागू किया, मगर नई राष्ट्रीय वन नीति का वादा ठंडे बस्ते में पड़ा रहा.

लेकिन सरकार ने बिल्कुल भी हार नहीं मानी है. वर्षों से सरकार ने वन नीति मसौदे के विवादित तत्वों को तोड़कर उन्हें मौजूदा कानूनों के ताने-बाने में पिरोने का काम किया है. यह सब बिना किसी जवाबदेह वन नीति के किया गया है. जुलाई 2023 सरकार ने गजब की पैंतरेबाजी की. सरकार ने एक प्रमुख वन कानून में बड़े पैमाने पर बदलाव कर दिया है. संशोधित वन संरक्षण कानून, 2016 और 2018 के राष्ट्रीय वन नीति के मसौदे में विवादित प्रावधानों से मिलते जुलते हैं.

केंद्र की विज्ञप्तियों से पता चलता है कि वह सैद्धांतिक तौर पर 2018 की मसौदा नीति अपना रही है, भले ही इसे आधिकारिक तौर पर अंतिम रूप से नहीं अपनाया गया हो. जुलाई 2023 की प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो की एक प्रेस रिलीज में कहा गया है: “मंत्रालय ने कई मंत्रालयों से सलाह मशविरा सहित विभिन्न हितधारकों के साथ व्यापक परामर्श के बाद राष्ट्रीय वन नीति का मसौदा तैयार किया है. इसे साल 2018 में सार्वजनिक डोमेन में रखा गया। नई वन नीति का मसौदा वन प्रबंधन के लिए जलवायु परिवर्तन रोकथाम और अनुकूलन उपायों के एकीकरण की सिफ़ारिश करता है, जिसमें वन पर आश्रित समुदायों द्वारा जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए किए गए प्रतिरोधों को भी शामिल किया जाए.

(इसके अगले भाग में पढ़िए कैसे ठंडे बस्ते में डाले गए वन नीतियों के मसौदों में मौजूद कारोबारियों को फायदा पहुंचाने वाले विवादित प्रावधानों को वन कानूनों में शामिल किया गया?)

साभार- The Reporters' Collective

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